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उपदेशमालाविशेषवृत्तिः
| आदर्शगृहे भरतकेवलम्
॥५३॥
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इह हि परकज्जलम्गेनेह दसादाहपूरियपयासे। सिरिरिसहनाहदीवे देवे निव्वाणपतमि ॥१॥ तिदिवं तिदिवेसोविव, अखंडछक्खंडमंडियं | भरहं । सिरिभरहचक्कवट्टी, पालइ लालियपयावरगो ॥२॥ उवभुंजइ सज्जियसारफारसिंगारहावभावाहिं । चउसद्विसहस्सेहिं तरुणीहिं समं विसयसोक्खं ॥३॥ हरियंदणंगरागो देवंगनिवत्थवत्थवित्थारो। कडयकडिसुत्तकुंडलकेऊरकिरीडलंकारो ॥ ४ ॥ इय विरइयसिंगारो आयसघरंमि विमलफलिहमए। पविसइ सरीरसोहादसणकजेण स कयावि ॥ ५॥ वारंवार जा अंगमंगमिक्खेइ | मुहिया ताव । गलिया अंगुलिकिसलाओ सा विसोहा तओ जाया ॥ ६॥ ववगयसोहं तं पासिऊण सव्वंगसंगि आभरणं । मुक्कं साहावियरूवदसणत्थं महीवइणा ।। ७ ॥ ता तक्खणेण पेक्खइ पउत्थसुपसत्थसोहसंभारं । ससरीरं अंबरमंडलं व गयतारतारगणं ॥ ८॥ कमलायरं व अहवा विलूणनीसेससारतामरसं। सिररज्जुबद्धचम्मावणद्धकीकससमूहमयं ॥ ९॥ चिंतइ गुरुसंवेगो उल्लसियउदग्गवग्गु वेरग्गो। हा किमसारस्स सरीरयस्स न मए कयमिमस्स ॥ १० ॥ कालागुरु-कत्थूरी-कुंकुम-घणसार-गंधसारेहिं । वरवसणाभरणेहिं य तहावि पगई अइअसारा ॥ ११॥ पिउवण कीलोदर-दाहदूसिओ भूसिओ वि सव्वंगं । जह नियपगई परिहरइ, नेव तह एस हयदेहो ॥ १२ ।। एवंविह निंदियदेहकारणा कहवि मए महापावं । कयमच्चतरउदं अहो विमूढेण चिरकालं ॥ १३ ॥ कह वा विसयाऽऽमिसमोहिएण जिणनादेसिओ धम्मो । निपुन्नएण न मए सिवफलउ सम्ममायरिओ ॥ १४ ।। किं चिंतामणि मह कप्पतरुवरं कामधेणुमहवा वि । कोवि सयण्णो धन्नो, लहूण परम्मुहो होज ॥ १५॥ ते बाहुबलिप्पमुहा, धन्ना मह भाउणो महाभागा । जेहिमसारसरीरेण सारिओ सुंदरो मोक्खो ॥ १६ ॥ किंच-"स्थिरापायः कायः प्रणयिषु सुखं स्थैर्यविमुखं, महारोगा भोगाः कुवलयदृशः शल्यसदृशः।
गृहावेशः क्लेशः प्रकृतिचपला श्रीरपि खला, यमः स्वैरी वैरी तदपि न हितं कर्मविहितम्" ।। १७ ॥ १ दहदिसा।
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