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उपदेशमाला
विशेषवृत्तौ
॥ ३५० ॥
को होही, सो नूणं कोइ परपुरिसो ॥ ३३ ॥ अहह अहो इत्थीणं, धिरत्थु चरियाई दुज्जणाणं व । महुमहुरमुहीण महाहिदाढगाढाण हिययंमि ।। ३४ । सन्तापिनि संसारे, यदि तव विश्रामभूमयो रामाः । ननु कुपितभोगिभोगच्छायाभिः किं कृतं तर्हि ॥ ३५ ॥ प्रकृतिपिशुनैर्मर्यै मैत्री किमत्र चलाचला, किमत्र मरुता धूतः स्फीतध्वजाञ्चलपल्लवः । किमथ चपला तन्तुर्नृत्यन्नवाम्बुदडम्बरे, नहि नहि नहि स्त्रीणां प्रेम प्रियेष्वतिगत्वरम् ॥ ३६ ॥ इय अलियविलीयविलास - वाउलो सो पहायसमयमि । संचलिओ जयपहुपायपज्जुवासाए आसाए ॥ ३७ ॥ अभयं भणेइ हक्कारिऊण रे रे करेह मह भणियं । गंतुं संतेउरियं, अंतेउरमुरू पलीवेहि ॥ ३८ ॥ तह एयं आएसं संपाडस संपयं जहा जंतो । डज्झंतीणं सव्वाण, ताण निसुणेमि करुणरवे ॥ ३९ ॥ चिंति यमभएणमलीयकप्पणाविप्पलद्धबुद्धीए । इय आइसेइ सामी, सुमरेइ न एयमवि कुविओ ॥ ४० ॥ पढमं चिय रोसभरे, जा बुद्धी होइ सा न कायव्वा । अह कीरइ तो तीए, न सुंदरो होइ परिणामो ॥ ४१ ॥ मा होह सुयग्गाही, जमप्पणा पेक्खियं न पच्चक्खं । पश्च्चक्खे विहु दिट्ठे, जुत्ताजुत्तं वियारेह ॥ ४२ ॥ अहं पि किमियाणि करेमि - सत्थत्थपंडियस्स वि, मज्झेणाव किंपि तं कज्जं । जं न जणइ चित्तसुहं, घिष्यंतं नेव मुच्चतं ||४३|| अह घंघसालमेगं, पज्जालइ जेण जालमालाहिं । गुरुधूमधोरणीहिं च, पूरिअं अंतरिक्खतलं ॥ ४४ ॥ पेच्छंतो पच्छामुहमह पुहईसो नमसिउं सामि । गच्छंतो चिंतइ सकय-फलमिणं चेल्लणे ! ह ||४५ || अतुरियतरं पहुपायपंकयं पणमिऊण पुच्छिसु । एगवइया दुवइया व, चेल्लणा सामि ! आइस ||४६ || एगवइयत्ति पहुणा, पपिए उणि वेगेण । चलिओ अणुतावानलचलंतचित्तो विचितेइ ॥ ४७ ॥ हा हा कयं अकज्जं, मए किमेयं दुजायजम्मेण । निहाए चेल्लणाए, अत्यमिओ मज्झ जियलोओ ॥ ४८ ॥ अपरिक्खियकारितं, काउरिससिरोमणीण सिरसिंगं । इहपरलोयदुहाणं, निहाणमसमाणमपि हाणं ॥ ४९ ॥ “ अपरिक्खियकयकज्जं, सिर्द्धपि न सज्जणा पसंसंति । सुपरिक्खियं पुणो विहडियंपि न जणेइ वर्याणिज्जं ॥ ३५० ॥ अभओ इंतो जयपहुपयपंकयपज्जुवासणाऽऽसाए । दिट्ठो पुट्ठो य अरे, कहसु कथं किं तए ताव ॥ ५१ ॥ भणियमभएण आणं, अपमाणं कुणइ कोइ किं तुम्हें । जालाजडालजलणे, पलीविया चेल्लणाईया ॥ ५२ ॥ तं कि
चेलणाशीलशङ्का ।
।। ३५० ।।