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उपदेशमाला विशेषवृत्ती ॥ २९५॥
अनुमोदने बलदेव-मृग रथकार कथा।
यच्च गुरोगिरा वसुमती बद्धो यदम्भोधिः । एकैकं दशकन्धरक्षयकृतो रामस्य किं वर्ण्यते, देवं वर्णय येन सोऽपि सहसा नीतः कथाशेषताम्" ॥ १८ ॥ पुनश्च स्नेहोत्कर्षात्-अजवि जीवइ रुट्ठो त्ति, मुणिय परिभमइ जाव छम्मासे । खंधारो वि य मडओ वणमज्झे मोहवसवत्ती ॥ १९ ॥ जाणतो वि हु भुल्लो, अहह महामोहविलसियमपुव्वं । दढमवियाणिय मझं, जेण नडिजंति गरुयावि ॥२०॥ उक्तं हि-कृच्छ्राद् ब्रह्मेन्द्रभूतेरित्यादि । (पा. २०६) अह जो विमाणवासी, जाओ सिद्धत्थसारही आसि । नियइ स रामं हरिनेहनडियमडवीए भमडतं ।। २१ ॥ उत्तमपुरिसस्स तणुत्ति, न खलु किमिएहिं जजरिजंतं । मडयं वहतमंसत्थलेणमणवरयमचंतं ॥ २२ ॥ पडिबंधमहुम्माएण, मत्तचित्तो मए इमो सामी। बोहेयव्वोऽवस्सं, कयसंकेएण पुव्वभवे ॥ २३ ॥ इय पडिबोहोवाए, कुणेइ दसइ स ताव एगत्थ । कयकोडुंबियरूवो, खेडंतो जज्जरबइल्ले ॥ २४ ॥ अइविसमपव्वयाओ, उत्तिनं सममहीए संपत्तं । संधइ सगडं अइगुरुसिलाए सयसिक्करं जायं ॥ २५ ॥ भणियं बलेण एदहमेत्ताए सिलाए चुन्नियं एयं । संघडसि सगडमइमूढ ! कह न तं होसि हसणिज्जो ॥ २६॥ भणियं देवेण जया, जीविस्सइ ते मओ इमो भाया । सगडंपि तया सजं, सज्जो होही ममेयपि ॥ २७ ॥ आयन्निऊण एयं, रुट्ठो रोहिणिसुओ पुरो चलिओ। दुम्मुह ! अमंगलाई, रे जंपसि किं ति पभणंतो ॥ २८ ॥ पउमिणिमारोवितो, सुद्धसिलाए सुरो पुरो दिट्ठो । हसिउणमुवालद्धो, तहेव तेणवि बलो वुत्तो ॥२९॥ अवरत्थ चिरमयाए गावीए संघडित्तु अट्ठीणि । नीरेइ नीलचारिं, तदग्गओ कुणइ नीरं च ॥ ३० ॥ एगत्थ उग्गदावग्गिड्ढमंगाररूवमावन्नं । काऊण थाणयं पाणिएण सिंचइ महारुक्खं ॥ ३१ ।। अन्नत्थ हथिमेगं, मयगं संजुगकए समुदुवइ । सेणाए सज्जियाए, मिट्टो अंकुसकरो होउं ॥ ३२ ॥ सव्वत्थ उवालद्धो, देवो तं चेव उत्तरं देइ । चिंतइ बलो वि चित्ते, चमक्किओ किंचि पडिबुद्धो |॥३३ ।। सुन्ने रन्ने कह कोइ, इह नरो इय पयंपिरो होज्जा । ता किंपि कारणं एत्थ, अत्थि इअ चिंतिए तेण ॥ ३४ ॥ पढम पयडइ अमरस्स, रूवमइचवलकुंडलाहरणं । हारद्धहाररेहंत-हिययमह नंगली नमइ ।। ३५ ॥ तो अइसिणिद्धसिद्धत्थसारही होइन हलहरस्सेव । पञ्चभिजाणिय जोडियकरंजलिं तं स पुच्छेइ ।। ३६॥ किं वच्छ ! अच्छरिजं, अमरो सिद्धत्थओ तओ तसि ।
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