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गुरुपर्युपास्तिफले प्रदेशिनृपदृष्टान्तः।
पाएहिं पायाण सयमणुभवेण नाममाई किर करेऊणाल पावपब्भारमायर परलोओ जइ हवेचना
उपदेशमाला-0
णुमाणेहिं । परलोगो वि पसिद्धो, तक्कारणगो जमेसो त्ति ॥ २५ ॥ पुण पत्थिवो पयंपइ, परलोओ जइ हवेज ता कह णु ।
परलोगाओ आगम्म, मं पिया न पडिबोहेइ ॥ २६ ॥ पाणाइवायपामुक्ख-पावपब्भारमायरेऊण । तुज्झ मएणं नूणं, जं स गओ विशेषवृत्तौ
दुग्गई दुगां ।। २७ ।। अंबा विसुद्धसद्धम्म-कम्ममम्माई किर करेऊण । सगं गया वि आगम्म, किं न मे धम्ममुवइसइ ॥२८॥ ॥ २८६ ॥16 पियराणि मज्झ अइवच्छलाणि सयमणुभवेण नाऊण । दुक्कयसुकयफलं किं, मं नहु वारिंति कारिति ॥ २९ ॥ भणियं गुरुहिं
गुत्तीए, गुत्तिपाएहिं पायसंकलिओ। न लहइ गंतुं चोरो, जह नियनाईण गेहमि ॥३०॥ तह अणवरयं परमाहम्मियअमरेहिं कप्परिजंतो। होइ न सवसो निमिसंपि, तत्थ ता कहमिहेउ जिओ ॥३१॥ उच्यते च-अच्छिनिमिलियमेत्तं, नत्थि सुह दुक्खमेव अणुबद्धं । नरए नेरईयाणं, अहोनिसि पञ्चमाणाणं ॥ ३२ ॥ जणणी वि तुज्झ दिव्वोवभोगभोगाइमग्गसंलग्गा । नेहा- | गंतुं पारइ, अवरावरकज्जवक्खेवा ॥ ३३॥ इदमप्युक्तम्-संकंतदिव्वपेम्मा, विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तव्वा । अणहीणमणुयकज्जा, नरभवमसुहं न इंति सुरा ॥ ३४ ॥ अह आह महीनाहो, नाहियवाई पियामहाई वि । मह ता करेमि अकुलक्कमागयं कहमिमं धर्म ॥ ३५ ॥ भणइ गुरु तो चोरिकरोगदोगच्चदुन्नयाईयं । कस्सइ कुलक्कमेणागयंति किं तं न मोत्तव्यं ॥३६॥ अइवा वि कोवि कस्सइ, रज अप्पिज्ज सज्जसत्तंगं । तं मा गिन्हउ किं दुग्गयस्स अंगुब्भवो भूव ! ॥३७ ।। जइ वा कयाइ कोई, कस्सइ करुणाए निठुरं कुटुं । कोढियसुयस्स फेडइ, ता किं तं मा समन्नेउ ॥ ३८ ॥ इय उत्तरपच्चुत्तरपरंपराए पबोहिओ राया । सावयधम्म सम्म, सम्मत्ताई पवजेइ ॥ ३९ ॥ पालेइ निरइयारं, सारं संसारसायरतरंडं । अइचारुबंभचेरं च, दुच्चरं चरइ चिरकालं ॥ ४० ॥ तो सूरियकताए, पावपसत्ताए कामतत्ताए। परपुरिसासत्ताए, चित्तं एयारिसं जायं ।। ४१ ॥ समणोवासगधम्माणुरत्तचित्तो निवो जओ जाओ। तद्दिवसाउ सम्मं, नाढाइ ममं मणागपि ॥४२॥ ता मह संपइ संपयमेयं काउं सकामहिययाए । हयभत्तारा सूरियकंतं पुत्तं करेमि निवं ॥ ४३ ।। ववगयअसेससंका, भोगे भुंजामि तो जहिच्छाए । इय विसमेसा पोसहपारणए देइ नरवइणो ॥४४॥ पित्तजरदाहदूमिज्जमाणदेहेण पत्थिवेण तओ। नाओ विसप्पओगो, सूरियकताए कंताए ॥४५॥ चिंतितं च
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फेड, ता किं तं मारसारं संसारसायरतरडारस जाय ॥ ४१ ।। समामाययाए ।
जाओ। तापसत्ताए कामतता निरइयार, सार ॥ ३८॥ इये
॥ २८६ ॥