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उपदेशमालाविशेषवृत्तौ|
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अवन्तिसुकुमालसन्धिः ।
॥ २६५॥
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॥ ४४ ॥ हा वच्छ ! वच्छ ! वच्छल ! छइल्ल, पई कियउ किमेरिसु गुणिपहिल्ल । हउं जेव पडिय एरिसि अणत्थि, संसारि नारि तिव अन्न नत्थि ॥ ४५ ॥ हा हियय सच्छ सुचरित्तसूर, मह पाडियऽवट्टकयंतकूर । मई सव्वहावि बहुयाहिं अहव । किउ IN अविणउ तुज्झु न कोइ कहव ॥४६॥ इय गुण सुमरेविणु चिरु रोएविणु पुज्जइ पुजियपुव्वु पुणु । कालागुरुचंदणि तित्थु जि
सा वणि सकारावइ साहु तणु ॥४७॥ सत्थवाहि वहुयाहि समन्निय, सिप्पमहानइतीरु पवन्निय । नयणनीरु नीरंधु निरग्गलु, ! जिव तिव तासु देइ अंजलिजलु ।। ४८ ॥ सुयविओगसोगग्गिपलत्तिय, सघरि खलंत पडती पत्तिय । गुरुअकंदसहसम्मदिण
भवणु भरंति व भणिय सुहत्थिण ।। ४९ ॥ धम्मसीलि! सीलेसि किमग्गलु, सोगवेगसविवेग अमंगलु । मुयउ कोइ किं जीवइसोगिण, अरु तणुपीड पवज्जइ रोगिण ॥ ५० ॥ धम्मु रम्मु भववाहिमहोसहु, तह सुमंतु सोगाइकुदोसहु। बिपहरदिक्ख-10 धम्मि तुह जायउ, नलिणि विमाणि देउ सो जायउ ॥ ५१ ॥ इय एउ सुणंती भवहि विरत्ती सत्थवाहि सुपसत्थमइ । वहुयाहि समन्निय घरि निव्विन्निय दिक्ख लेइ अचिरेण सइ ॥५२॥ वहुयाहं एगगुरुहार आसि, न स दिक्खिय थकिय गेहवासि । नियअवसरि जायउ ता सुतणउ, जिव हीरउ रोहणखाणि तणउ ॥५३॥ पइवासरु वढइ सो सुबालु, जिव वणनिगुंजि सहयाररसालु । निसुणि वि कयाइ नियतायचरिउ, अइचित्ति चमकिउ हरिसभरिउ ॥ ५४ ॥ तहिं वणपएसि नियतायमुत्ति सुकरावइ ठावइ सुहमुहुत्ति । जिणवेसिण पाओवगमि ठाइ, सहुं चेल्लुरोहिं सिव जेव खाइ ॥ ५५ ॥ तसु उप्परि देउलु चंगसिंगु, सजणेरनेहि कारइ सुतुंगु । नेवजपुज्जपेच्छणछणाइ, तहिं सव्वु करावइ निच्चु जाइ ॥५६॥ कालक्कमि जायउ सो विक्खायउ, तित्थु तित्थु लोयह तणउ । 'महकालु' कहिज्जइ अन्जवि, विजइ मुणि सियालि रूवग जुयउ ॥ ५७ ॥ इत्यवन्तिसुकुमालसन्धिः॥
__अधुना गाथार्थस्तत्र पूर्वाद्ध स्पष्टम् । नवरमुद्धोस शब्दो देश्यः-परेषां दुःखोत्कर्षादिदर्शनादुत्पन्नस्य तनुकम्पादिलिङ्गस्य दुःखविशेषस्य वाचकः । उत्तरार्द्धं त्वात्मशब्दो बहिरात्मनः शरीरस्य वाचकोऽन्तरात्मनस्त्यक्तुमशक्यत्वात् । ततः आत्माऽपि शरीरमपि
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