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शालिभद्र
महर्षि
सन्धिः ।
उपदेशमाला
॥ अथ तृतीयो विश्रामः॥ विशेषवृत्तौ|| मणिकणगरयणधणपूरियमि भवर्णमि सालिभद्दोऽवि । अन्नो किर मन्झ वि सामिओत्ति जाओ विगयकामो ॥ ८५॥ ॥२५॥ __न केवलं यत्यवस्थायां, गृहस्थावस्थायामपि विवेकस्य महत्फलमिति दृष्टान्तेनाह-“ मणिकणग" गाहा । कथायां कथितायां
| गाथार्थः कथित एव स्यादिति सैवोच्यते-।। ८५ ॥
सालिगामुनामेण पसिद्धओ, आसि गामु धणधन्नसमिद्धओ। धन्ना नामि कावि विवंगण, तहिं कम्मयरी आसि अकिंचण ॥१॥ तसु अहेसि संगमु इगु अंगउ, लोयह वच्छरु य चारंतउ । माइ कयाइ तेण रोएविणु, मग्गियखीरि करम्गि धरेविणु ॥२॥ तं पेक्खिवि सा रोयणलग्गी, पिय समरेविणु नीधणचंगी। मिलिय सइज्झी पुच्छहिं कारणु, कहियइ तीए करिति निवारणु ॥३॥ बहिणि ! न जाणइ बेट्टउ काई, मह कहिं तंडुल-दुद्ध-घयाई । अप्पिय ताहिं ताई तो पायसु, रद्धउ सिद्धउ तीए महारसु ॥४॥ परिवेसि वि सा थालि विसालइ, पायसु पुत्तह पत्त परालइ । तसु घरवारि तवस्सि तिगुत्तउ, मासखवणपारणइ पहुत्तउ ॥५॥ तउ चिंतइ संगमु गुणगणसंगमु कटरि पुनपरिवाडि महु । जउ साहु महातओ अवसरि आगउ विहराव वरखीरि सहं ॥६॥ एष एवामृताहारः उदृइ थालु विसालु सुलेविणु, मुणि पडिगाहइ गुण चिंतेविणु । खीरि देवि सो चिंतेइ तित्तउ, तं सव्वंगु सुहारसि सित्तउ ॥ ७॥ कटरि कटरि अवसरु संजायउ, भरिउ थालु खीरिहि मुणि आयउ । वपुरि वपुरि मुणिसीहपसाऊ, मह दिंतह खंडियउ न भाऊ ॥८॥ माइ पुणवि परिवीसइ पायसु, जिमइ जाव सो धाइ महायसु । रयणि अजिरमाणि जेमणि तिणि, वासियवमणि मरेइ तहिं दिणि ॥ ९॥ पत्तदाणि तिणि आउ निबद्धउ, नरभवि उब्भड भोगसमिद्धउ । कामधेणु कप्पदुम अगलु, जइइ सुपत्तदाणु जयमंगलु ॥१०॥
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॥२५५॥