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क्षमायां गजसुकुमाल मुनिसन्धिः।
उपदेशमाला
सपरक्कमराउलवाइएण सीसे पलीविए निअए । गयसुकुमालेण खमा, तहा कया जह सिवं पत्तो ॥५५॥ विशेषवृत्तौ
'सपराक्रमेण'-परनिराकरणोत्साहशक्तिमतापि ‘राजकुलवातिकेन' च राजकुलजन्मजनितोत्कर्षवताऽपि गजसुकुमालेन शीर्षे
प्रदीपितेऽपि निजके तथा क्षमा कृता, यथा 'शिव'-मोक्षं प्राप्त इति गाथार्थः ॥५५॥ कथानकावगमे स सुप्रत्येयः स्यादिति तदुच्यते- ॥ २२८॥16
आसि नयरी बारवइ पसिद्धिय, सावसुवन्नसमिद्धिय । जा जोयणबारह दीहत्तणि, सक्कि कराविय नवपिहुलत्ताणि ॥ १॥ जहिं धणकणयकोडिसज्जिजहिं, दाणि मणोरह जणह न पुज्जहिं । भेरिसद्दनिहारियरोगिहिं, धन्नंतरि मन्नियइ न लोगिहिं ॥२॥ करइ ति(त)त्थुराणिवरणसारउ, नारायणु नारिहिं पियारउ । चावचायचारहडि य चुक्कउ, कुनयकुसंगकलंकिहिं मुक्कउ ॥३॥ जसु निरु निवसइ नेमि भराडउ, माणसि हंसु जेम्व जयसारउ । खायगसम्मदिद्विसुविसिटुउ नेमिजिणेसरि जो उवइदुउ ॥ ४ ॥ सच्चहां अवरु रूप्पिणी राणी, सयलंतेउर मज्झि पहाणि । विहरंतउ सिरिनेमिजिणेसरु, तहिं कयाइ पत्तउ परमेसरु ॥५॥ कुलसेलजिणंतह गिरि उजिंतह लक्खारामि समोसरणु । तक्खणि तियसिंदिहिं किउ सच्छंदिहि भवभयत्तजंतुह सरणु ॥६॥ किय देव देवि देसण सुचंग, नरअमरअसुरराएकरंग । खणि मुणिहिं जाय विहरणहवार, अणुसरहिं साहुजण घरदुवार ॥ ७ ॥ अह देवइदेविहि दुन्निपुत्त, विहरंत भवणअंगणि पहुत्त । बिहि ताह अणियजसोत्ति पढमु, महसेणु बिइज्जओ पोढपसमु ॥ ८ ॥ तो साहुसीहं पिक्खेवि बेवि, निय अंगि माइ देवइ न देवि । सा देइ सिंहकेसररसाल, नवलड्डुय गड्डु य जिव विसाल ॥ ९॥ विहरावि जाव देवइ बइगु, जइजुयलि अन्न तावहिं पविट्ठ । मुणि अजिअसेणु गुणगणसमग्गु, अरु नियसेणु अणुमग्गलग्गु ॥१०॥ विहरावइ देवइदेवि तेवि, वियसंतचित्त मोयगिहि बेवि । खणमेत्ति तइजओ तत्थ पत्तु, संघाडउ सुमुणिहि अप्पमत्तु ॥११॥ अम्गेसरु मुणिवरु देवसेणु, अणुपह पयट्टु पुणु सत्तुसेणु । विहराविय तेवि हु मोयगेहिं, नियभावभत्ति अइकोउगेहिं ॥१२॥ ते वि हु विहरावि चिरु निज्झाइ, विचिंतइ चित्ति चमक्कियई। किं एहु भराडउ मुणिं संघाडउ, वार वार घरि एइ हई ॥१३॥
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