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उपदेशमालाविशेषवृत्तौ ॥ २२०॥
वनस्वामिचरित्रम् ।
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अइकक्खडरुक्खदुभिक्खे ॥ ६३ ॥ पिंडोलग व्व कह नाम, देहबलियाए जाउ जीवामो। पंचत्तमेव पत्ताण, तेणमम्हाण कल्लाणं ॥ ६४ ॥ लक्खेण खीरिभत्तं, तत्तो तीए उवक्खडेऊण । विसपक्खेवो परिभाविउ सयं भक्खणढाए ॥६५॥ चिंतइ भक्खिय एयं, पंचनमोक्कारसारवावारा । पाणे परिहाइस्सं, सकुडंबा न उण मिक्खिस्सं ॥ ६६ ॥ जा पक्खिविउ लग्गा, विसचुन्नं तत्थ | सत्थवाही सा। ता पत्तो पुन्नायड्ढिउ व्व सो वइरसेणमुणी ॥ ६७ ॥ तं दळूणं तुट्ठा, सा चिंतइ सुछ सुठ्ठ संजायं। काले पत्तं पत्तं, पडिलाभिय भुजिय मरेमो ॥ ६८ ॥ तं वंदिऊण पडिलाभिऊण खीरीए वइरसेणमुणिं । परमत्थं वित्थारइ, खीरीए | लक्खमोल्लाए ॥ ६९ ॥ तो भणइ वइरसेणो, मा खीरीए खिवेइ विसमेयं । मरणेणमलं एत्तो, महा सुभिक्खं जओ होही | ॥ ३७० ॥ सिरिवइरसामि सुगुरूहिं, तेहिं कहिऊणमेयमेगंते । इय घोरदुभिक्खे म्हि, पेसिओ दूरदेसेसु ॥ ७१ ॥ जं तत्थ कत्थइ लक्खं पागखिरि लहेसि विहरतो। ताओ (तत्तो) चेव दिणाओ, जाणिज्ज सुभिक्खमोइन्नं ।।७२।। ता कि अकालमरणेण, धम्मसीले ! इमेण तुम्हाण । सुलहे अन्ने सत्थे, सुचित्तभावेसु जाएसु ॥७३॥ समुदाएणं पडिवज्जिऊण पव्वज्जमुज्जलं(म) काले । चारित्तमुत्तमेणं, सत्तेण पवत्तए पवित्तं ॥ ७४ ॥ इय सोउं सा जाया, रोमंचपवंच कंचुयचियंगी । विसमुज्झिऊण वंदित्तु, तं मुर्णि भुंजइ जहिच्छं ।। ७५ ॥ अह अवरन्हे देसंतराहि पत्ताणि जाणवत्ताणि । अइपउरधन्नपुन्नाई, तेहिं जायं अइसुभिक्खं ॥ ७६ ॥ मुणिवइरसेणपासे, सव्वाणि वि ताणि सुद्धचित्ताणि । अणवज पव्वजं, पडिवज्जेऊण विहरति ॥ ७७ ॥ इय वेइरसामिसीसाओ वइरसेणाओ भयवओ तस्स । अजवि वित्थरमाणा, एसो पच्छुप्पओ जाओ ।। ३७८ ।। इति श्रीवनर्षिकथा । किमित्यलोभतेषां साधूनां स्यादित्याह
अतेउरपुरवलवाहणेहिं वरसिरिघरेहिं मुणिवसहा । कामेहिं बहुविहेहि य, छदिजंतावि नेच्छंति ॥ ४९ ॥ छेओ भेओ वसणं, आयासकिलेसभयविवागो अ। मरणं धम्मभंसो, अरई अत्थाउ सव्वाई ॥ ५० ॥
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