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उपदेशमालाविशेषवृत्तौ|
वनस्वामिचरित्रम् ।
॥२११॥
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गयं । जो कोइ तंपि गहिय, कन्नाहेडेण तेण लहुँ ॥ ८६ ॥ अप्पपयासेणं चिय, पाएण बहुस्सुओ स तो जाओ। अज्झावगेण अमुणिय, तन्भावेणं जया भणिओ ॥ ८७ ॥ पढसु इमं सुयमेसो, तं चेवाऽऽलावगं वि कुट्टितो। अच्छइ अन्नंमि दढं, कओव
ओगो पढिजते ॥ ८८॥ अह अवसरंमि कमि वि, दिणद्धसमयंमि सूरिसु गएसु । बाहिं वियारभूमि, साहूसु य भिक्खणदाए ।। ८९॥ वइरो वसहीए रक्ख-गोत्ति संठाविओ तओ तेण । नियबालकालचावल-कुऊहलेणं निहित्ताओ ॥१९० ।। साहूण विटियाओ, मंडलिपरिवाडिमणुसरंतेण । मज्झे ठाउं सयमेव, वायणं दाउमारद्धो ॥ ९१ ।। अंगाणं पुव्वगयस्स, जलहिसंखोहगहिरसद्देण । एत्थंतरंमि गुरुणो, पत्ता निसुणंति निग्घोसं ।। ९२ ॥ चिंतंति लहुं मुणिणो, समागया अन्नया कहेस रखो । चिटुंति | जाव निहुया, बहि ठिया उवगयं ताव ।। ९३ ॥ नूणं न साहुसद्दो, एसो वइरस्स किंचि ओसरियं । तस्संखोह भएणं, निसिहिया गुरुसरेण कया ।। ९४ ।। अइदक्खत्तगुणाओ, तं सदं सुणिय ठाविया ठाणे । सव्वाओ विंटियाओ, गहिओ गुरुहत्थओ दंडो ।। ९५ ॥ विहियं पायपमज्जणमह सीहगिरी वि चिंतए एवं । अइसयसुयरयणनिही, एसो ता मा परिभवंतु ॥ ९६ ।। एय एए साहू, इय जाणावेमि एय गुणगरिसं । जेणं एय गुणोचियमेए विणयं पउजंति ॥ ९७ ॥ रयणीकाले मिलियाण, संजयाणं गुरुहिं कहियमिणं । जह अम्हे वच्चामो, गामे दिवसाणि दो तिन्नि ॥ ९८ ॥ अच्छीहामो तो जोगवाहिणो भणंतेवं । अम्हाण वायणाए, को होज गुरु भणइ वइरो ॥ ९९ ॥ पयइए विणयलच्छीकुलगेहं विहिय गुरुजणाऽऽसासा। ते तं वयण गुरुणो, तहत्ति मन्नंति मुणिसीहा ।। २००॥ अत्रैव भणिष्यते च-"सीहगिरिसुसीसाणं, भदं गुरुवयणसद्दहंताणं । वइरो किर दाही वायणंति नय कोवियं वयणं ॥१॥" पत्ते पभायसमए, कयवसहिपमजणाइ कायव्वा । कालनिवेयणमाई-विणयं वइरस्स पकरिंति ॥२॥ सिरिसीहसूरिअणुजेटु-समुचिया सव्वसाहुकप्पेहिं । तस्स निसेज्जा रइया, स तीए सुसिलिट्ठमुवविट्ठो ॥३॥ “पाऊण पाणियं सरवराण पिढेि न दिति सिहिडिंभा । होही जाण कलावो, पयइ च्चिय साहए ताण ॥४॥" ते वि जहा गुरुणो, वंदणाइविणयं तहा पउंजंति । सो वि कयदढपयत्तो, सव्वेसिं वायणं देइ ॥५॥ जे तत्थ मंदमइणो, ते वि य तस्साणुभावओ खिप्पं ।
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