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उपदेशमालाविशेषवृत्तिः
प्रसन्नचन्द्रराजर्षिकथा
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वाहेइ कर सिरक्खस्स ॥ १७ ॥ ता लुंचिय कुंचिय चिहुरसंचयं चेव फरिसइ सिरं सो। जाणइ जाओ म्हि जई तो मिच्छादुक्कडं देइ ॥ १८ ॥ चत्तं कलत्तपुत्ताइ, दंतिदेसाइ किमियमारद्धं । गिरिसिहरंमि चडंतो, पडिओऽहं गरुयगड्डाए ॥ १९ ॥ मग्गेसि मोक्खसोक्खं खले खणेणं खणेसि खलु एवं । कवलेसि कालकूडं, ता नूणं जीव ! जीयट्ठी ॥ १२०॥ परिहरिय अप्पकजं, परकजे उज्जओ म्हि ही जाओ । इय भावणाए सव्वदुहेउ इमिणा कयं सुकयं ॥ २१॥ एत्यंतरे सुओ दुंदुहीए उद्दामसहसम्महो । किमियंति पुच्छिए सेणिएण सामी समाइसइ ॥ २२ ॥ तस्स पसन्नस्स महामुणिस्स सुपसन्नचित्तवित्तिस्स । पवरज्झवसाण विसुज्झमाणभावस्स अणुसमयं ॥ २३ ॥ लोयालोयविलोयणलोलं केवलमियाणिमुप्पन्नं । अमरा आगम्म करिति, तेण पूयामहिममेयं ॥ २४ ॥ इय सत्तममहिबद्धं धंसिय अवरंपि घाइमोहाई । वरकेवली स जाओ, परजणजाणावणाहिं विणा ॥ २५ ॥ अह आह निवो एयं तु केवलं कत्थ सामि ! वोच्छिज्जा ? । पहुणा पुरो निविट्ठो, तो कहिओ विज्जुमालिसुरो ॥ २६ ॥ श्रेणिकः देवाणवि किं केवलमथि ? । जिनः-इओ सत्तमे दिणे चविसं जंबुनामो होही पुत्तो अयमुसभदत्तस्स ॥ २७ ॥ सीसो सुहम्मपहुणो य, सोउमेयं पणचिउं लग्गो। सहसा अणाढियतियसो, पुच्छइ निवइ किमेयं ति? ॥ २८॥ आह पहू एयस्सेस पुव्वभववंसे सेहरो होही । लहुय दोणो वयाइयमाविस्मइ तेण तुटुमणो ॥२९॥ चवमाणस्स वि तं विज्जुमालिणो विजए जुई। तहिं । सो सिवभवतवप्पभावो त्ति वंदिउँ निमाओ निवइ ॥ १३०॥ इति प्रसन्नचन्द्रराजर्षिकथा ॥
तदेवं न जनरञ्जनाप्रधानो धर्मः, किन्तु चित्तशुद्धिप्रधान इत्युक्तम् ॥ २०॥ अधुना या पुण्यपापक्षये दक्षा दीक्षेयं पारमेश्वरीति वचनाच्छैववत्तद्वेषमात्रादेव तुष्येत्तं प्रत्याह
वेसोवि अप्पमाणो, असंजमपएसु वट्टमाणस्स । किं परियत्तियवेस, विसं न मारेइ खजंतं ॥ २१ ॥ धम्म रक्खइ वेसो, संकइ वेसेण दिक्खिोमि अहं। उम्मग्गेण पडतं, रक्खइ राया जणवउ व्व ॥ २२ ॥
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