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________________ [ ५० ] परिणाम अलंकार दो तरह का होता है: समानाधिकरण्यमूलक, वैयधिकरण्यमूलक । सामानाधिकरण्यमूलक में विषयी तथा विषय दोनों एक ही विभक्ति में होते हैं। उदाहरण के लिये 'तस्मै सौमित्रिमैत्रीमयमुपकृतवानातरं नाविकाय' में 'भातर' (विषयी) तथा 'सौमित्रिमैत्री' (विषय) दोनों एक ही विभक्ति में हैं । वैयधिकरण्यमूलक परिणाम में विषयी तथा विषय अलग-अलग विभक्ति में होते हैं । जैसे निम्न उदाहरण में : -- तुम्नागजालकैर्हारान् काञ्जी: केयूरदामभिः | कर्णिकाः कर्णिकारैश्च विहतुं विदधुर्वने ॥ 'उन रमणियों ने वन में विहार करने के लिए पुन्नागों के द्वारा हारों, कैयूरदाम के द्वारा करधनी तथा कर्णिकार के द्वारा कणिकाएँ बनाई ।' यहाँ 'हारादि' (विषयी ) तथा 'पुन्नागजालकादि' (विषय) भिन्नविभक्तिक हैं । (७) ससन्देह ससंदेह अलंकार के प्रकरण में दीक्षित ने सर्वप्रथम प्राचीनों का लक्षण देकर उसकी परीक्षा की है। प्राचीनों का लक्षण यह है : साम्यादप्रकृतार्थस्य या धीरनवधारणा । प्रकृतार्थाश्रया तज्ज्ञैः ससंदेहः स इष्यते ॥ ( चित्र० पृ० ७० ) 'जहाँ सादृश्य के आधार पर प्रकृत ( उपमेय ) पदार्थ में उत्पन्न हो, उसे विद्वान् लोग ससंदेह कहते हैं ।' अप्रकृत पदार्थ की अनिश्चित बुद्धि इस लक्षण में कुछ दोष है : ( १ ) यदि हम 'साम्यात्' पद में फलत्वेन हेतुत्वविवक्षा मानते हैं तो 'आनीय द्विषतां 'धनानि' आदि संदेह के उदाहरण में इसकी व्याप्ति न हो सकेगी । (२) यदि हम इस पद में स्वतः हेतुत्वविवक्षा मानते हैं, तो 'अयं मार्तण्डः किं' आदि पथ में संदेह न हो सकेगा । ( ३ ) साथ ही इस लक्षण की अतिव्याप्ति विकल्प अलंकार - 'इह नमय शिरः कलिंगवद्वा समर मुखे करहाटवद्धनुर्वा' में होगी । (४) लक्षण में प्रयुक्त 'अनवधारणा' पद का अर्थ क्या है ? यदि उसका अर्थ अनिश्चयात्मकता है, तो इस लक्षण की अतिव्याप्ति उत्प्रेक्षा के उदाहरणों में होगी, क्योंकि बुद्धि की अनिश्चितता वहाँ भी पाई जाती है । यदि 'अनवधारणा' का अर्थ यह है कि बुद्धि में अनेक पक्ष एक दूसरे को परस्पर ढकेलते रहते हैं, तथा वह किसी एक कोटि में स्थिर नहीं हो पाती, अपि तु अनेक कोटियों का स्पर्श करती है, तो फिर अपहृति के उदाहरण 'अंक' केपि शंशकिरे' (दे० कुवलयानन्द पृ० २९ ) में इसकी अतिव्याप्ति होती है । (५) साथ ही 'प्रकृतार्थाश्रया' पद मी ठीक नहीं है। क्योंकि कभी-कभी वर्णनीयं प्रकृत पदार्थ संदेह का आश्रय नहीं होता, अपितु उसमें सम्बद्ध पदार्थ होता है, जैसे 'अस्थाः सर्गविधौ प्रजापतिरभूच्चन्द्रो नु कांतिप्रदः' इत्यादि पद्य में वर्णनीय नायिका संदेह बुद्धि का आश्रय न होकर, वेदाभ्यासजड ब्रह्मा संदेहबुद्धि का आश्रय है । अतः इस उदाहरण में यह लक्षण लागू न होगा ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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