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________________ [४ ] 'इस रैवतक पर्वत पर होने वाले रत्नों की किरणों से मिश्रित चन्द्रकिरणों के सहस्र संख्या धारण करने पर, पमिनियां रात में भी यह सोच कर कि यह तो (चन्द्रमा नहीं) सूर्य ही है, अपने कमलों को विकसित कर देती है। इस पत्र में रैवतक पर्वत के रत्नों की कांति से मिश्रित चन्द्रकिरणों को सूर्य का प्रकाश समझ लेने में भ्रांतिमान् अलंकार है। यहां भी 'अहिमांशु' (सूर्य-आरोप्यमाण) विकासरूप प्रकृत कार्य में उपयोगी है ही । अतः उक्त लक्षण की यहाँ अतिव्याप्ति होगी। 'विकसदमरनारीनेत्रनीलाब्जखण्डा न्यधिवसति सदा यः संयमाधाकृतानि । न तु रुचिरकलापे वर्तते यो मयूरे वितरतु स कुमारो ब्रह्मचर्यश्रियं यः॥' 'वे स्वामिकार्तिकेय नो देव-रमणियों के संयम के कारण अवनत. प्रसन्नता से प्रफुछित नेत्र. रूपी नील कमलवनों पर विराजमान रहते हैं, सुन्दर पूंछ वाले मयूर पर नहीं, आप लोगों को ब्रह्मचर्य प्रदान करें। यहां कुमार के वास्तविक वाहन 'मयर' का निषेध कर अप्रकृत 'अमरनारीनेत्रों की स्थापना की गई है, अतः अपहुति अलंकार है। इस पथ में 'अमरनारीनेत्र' रूप अप्रस्तुत ब्रह्मचर्यवितरण रूप प्रकृत कार्य में उपयोगी हो रहा है, अतः यहां भी उक्त लक्षण की अतिव्याप्ति होगी। उरोभुवा कुंभयुगेन जम्भितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् । त्रपा सरिदुर्गमपि प्रतीर्य सा नलस्य तन्वी हदयं विवेश यत् ॥ 'क्या यौवन के द्वारा उपहार में लाये गये ( जिनके समीप हार था), वक्षःस्थल पर पैदा होने वाले कुम्भयुगल के द्वारा अपना विस्तार प्रकट किया गया था ? क्योंकि तभी तो उस सुन्दरी दमयंती ने लज्जारूपी नदी के दुर्ग के पार कर नल के हृदय में प्रवेश किया। यहां अतिशयोक्ति है, क्योंकि 'कुम्भयुगेन' (विषयी) ने 'कुचयुगल' (विषयी) का निगरण कर लिया है। इस पद्य में भी विषयी सरित्तरण रूप प्रकृतकार्य में उपयोगी पाया जाता है। अतः उक्त लक्षण की यहां भी अतिव्याप्ति हो रही है। इसी तरह दीक्षित ने अनुमान में भी इसकी अतिव्याप्ति सिद्ध की है। दीक्षित ने पूर्वपक्षी के मत से इसका समाधान यों दिया है कि इस लक्षण का अर्थ यह है :'जहाँ आरोप्यमाण प्रकृत के रूप में उपयोगी हो (प्रकृतात्मना उपयोगित्वे) वहाँ परिणाम होता है।' ऐसा अर्थ लेने पर रूपक आदि में अतिव्याप्ति न होगी। 'प्रकृत' शब्द के द्वारा हमारा तात्पर्य 'विषय' है । इस प्रकार 'जहाँ मारोप्यमाण आरोपविषय के रूप में स्थित होकर प्रकृतगमक का उपयोगी हो वहाँ परिणाम अलंकार होता है।' दीक्षित ने परिणाम का स्वयं कोई लक्षण निबद्ध नहीं किया है, अपितु प्रतापरुद्रीयकार विद्यानाथ के ही निम्न लक्षण को कुछ हेरफेर के साथ मान लिया है. जिसका अर्थ हम अभी-अभी दे चुके है: 'धारोप्यमाणमारोपविषयास्मतया स्थितम् । प्रकृतस्योपयोगि स्यात्परिणाम उदाहतः ॥' (चित्र० पृ० ६६) दीक्षित के मतानुसार विद्यानाथ के इस लक्षण में इतना परिष्कार करना होगा कि 'प्रकृतस्य' पद की व्याख्या 'प्रकृतगमकस्य' करनी होगी। ४ कु० भू०
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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