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________________ [ ४२ । (२) उक्तार्थोपपादनपरा, जहाँ किसी प्रतिपादित विषय ( उक्त अर्थ ) को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उपमा का प्रयोग किया जाय । (३)व्यायप्रधाना, जहाँ ( वाच्य ) उपमा अलंकार किसी व्यंग्य वस्तु, अलंकार या रस का उपस्कारक बन जाय । ___ हम यहाँ प्रत्येक के उदाहरण देकर विषय को लम्बा नहीं बढ़ाना चाहते। तदनंतर उपमा ( अलंकार ) तथा जपमाध्वनि ( अलंकार्य) के भेद को स्पष्ट करने के लिए दीक्षित ने उपमाध्वनि के उदाहरण दिये हैं। इसके बाद न्यूनत्व, अधिकत्व, लिंगभेद, वचनभेद, असादृश्य तथा असंभव इन छः उपमादोषों का तथा इनके अपवादरूप स्थलों का विस्तार से उल्लेख करते हुए उपमा प्रकरण को समाप्त किया गया है। (२) उपमेयोपमा चित्रमीमांसा का दूसरा अलंकार उपमेयोपमा है। इसमें भी दीक्षित ने पहले प्राचीनों के लक्षण को लेकर उसकी आलोचना की है। प्राचीनों का लक्षण यह है :-'जहाँ दो वस्तुएँ पर्याय से ( परस्पर ) एक दूसरे के उपमानोपमेय बनें, वहाँ उपमेयोपमा होती है, यह उपमेयोपमा दो तरह की ( साधारण या अनुगामी धर्मपरक तथा वस्तुप्रतिवस्तुभावरूप धर्मपरक ) होती है।' उपमानोपमेयत्वं द्वयोः पर्यायतो यदि । उपमेयोपमा सा स्याद विविधैषा प्रकीर्तिता॥ इस लक्षण में निम्न बातें पाई जाती हैं : (१) दो पदार्थों का पर्याय से' (पर्यायतः ) उपमानोपमेयस्व वर्णित किया जाय, अर्थात् दो वाक्यों का श्रोत या अर्थ प्रयोग करते हुए प्रथम उपमेय को द्वितीय वाक्य में उपमान तथा प्रथम उपमान को द्वितीय वाक्य में उपमेय बना दिया जाय । यदि लक्षण में 'पर्यायतः' का प्रयोग न किया जाता तो इस लक्षण की तुल्ययोगिता में अतिव्याप्ति हो जाती, क्योंकि तुल्ययोगिता में भी दो पदार्थ होते हैं, पर वहाँ उपमानोपमेयभाव 'पर्याय से' नहीं होता। (२) साथ ही पर्यायत:' के द्वारा व्यंग्य उपमेयोपमा का भी समावेश किया गया है। (३) इसके प्रयोग से 'रसनोपमा' की व्यावृत्ति की गई है, क्योंकि रसनोपमा में-भणितिरिव मतिर्मतिरिव चेष्टा चेष्टेव कीर्तिरतिविमला' में-पर्यायभेद से उपमानत्व तथा उपमेयत्व कल्पना पाई जाती है। (४) 'दिविधा' के द्वारा इस बात का संकेत किया गया है कि उपमा के प्रकरण में उक्त सात प्रकार के साधारण धर्मों में यहाँ दो ही तरह के पाये जाते हैं :-अनुगामी ( साधारण ) तथा वस्तुप्रतिवस्तुभावरूप। इसमें दीक्षित ने निम्न दोष ढूंढे हैं :(१) यह लक्षण एक वाक्यगत आर्थ उपमेयोपमा में घटित नहीं होता, जैसे इस पद्य में : स्वल्गुना युगपदुन्मिषितेन तावत् सद्यः परस्परतुलामधिरोहतां द्वे । प्रस्पन्दमानपरुषेतरतारमन्त श्वास्तव प्रचलितभ्रमरञ्च पद्मम् ॥ रघु के वैतालिक उसको जगाने के लिए भोगावली का गान कर रहे हैं। 'हे कुमार, चंचल एवं कोमल कनीनिका वाले तुम्हारे नेत्र, तथा चंचल भौंरों वाला कमल दोनों ही (प्रातःकाल के
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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