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________________ [ ४१ ] 'रघुवंश षष्ठ सर्ग के इन्दुमती स्वयंवरवर्णन का पथ है । ( नदी की ) सुन्दर नामि वाली, भविष्य में अन्य की पत्नी होने वाली, उस इन्दुमती ने उस पीछे छोड़ दिया, जैसे सुन्दर नाभि के समान भँवर वाली, समुद्र को जाने सामने आये पर्वत को पीछे छोड़ देती है ।' भँवर के समान राजा को इसी तरह वाली नदी मार्ग में यहाँ इन्दुमती उपमेय है, नदी उपमान । इनके तीन साधारण धर्म है : - 'व्यत्यगात् ', ‘अन्यवधूर्भवित्री-सागरगामिनी', 'आवर्तमनोज्ञनाभिः ' । यहाँ प्रथम साधारण धर्मं 'किसी चीज को पीछे छोड़ देने की क्रिया' है, यह दोनों पक्षों - उपमानोपमेय - में एक सा अन्वित होता है, अतः यह अनुगामी धर्म है। दूसरा साधारण धर्मं एक ही न होकर दोनों पक्षों में भिन्न भिन्न है । इन्दुमती के पक्ष में वह यह है कि 'इन्दुमती दूसरे ( अज ) की पत्नी होने जा रही है'; जब कि नदी के पक्ष में वह यह है कि 'वह समुद्र के पास जा रही है'। अतः ये दोनों धर्म भिन्न-भिन्न होने पर भी इनमें परस्पर बिंबप्रतिबिंबभाव है, पति की पत्नी होने तथा नदी के समुद्र में गिरने में बिंबप्रतिबिंबभाव है, इसलिये यह साधारण धर्मं बिंबप्रतिबिंबभावापन्न है । तीसरा धर्म एक ही पद है, पर इन्दुमती के पक्ष में उसका विग्रह होगा - 'आवर्तवत् मनोज्ञा नाभिर्यस्याः सा', जब कि नदी के पक्ष में इसका विग्रह 'आवर्तः मनोज्ञनाभिरिव यस्याः सा' होगा। इस तरह यहाँ साधारण धर्म समासांतराश्रित है | चूँकि इस पद्य में तीन तरह के साधारण धर्म हैं, अतः यह मिश्रित साधारण धर्म का उदाहरण है । असौ मरुच्चुम्बित चारुकेसरः प्रसन्नताराधिपमंडलाग्रणीः । वियुक्तरामातुरदृष्टिवीक्षितो वसन्तकालो हनुमानिवागतः ॥ 'हवा के द्वारा हिलते सुंदर पुष्पकेसर वाला, प्रसन्न चन्द्रबिंब से युक्त, वियोगिनी रमणियों की आतुर दृष्टि के द्वारा देखा गया यह वसन्त ऋतु मरुत् के द्वारा चूमे गये अयाल वाले, प्रसन्न सुग्रीव की सेना में प्रमुख, सीता- वियोगी रामचन्द्र की आतुर दृष्टि से देखे गये हनुमान् की तरह आ गया है ।' इस पद्य में कई साधारण धर्म हैं :- 'आगतः' तथा 'आतुरदृष्टिवीक्षितः' ये दोनों साधारण धर्म अनुगामी हैं । 'मरुच्चुम्बितचारुकेसरः' पद में उपचार तथा श्लेष का मिश्रण है । यहाँ 'चुम्बित' पद का वसन्त पक्ष में औपचारिक ( लक्ष्य ) अर्थ - स्पर्श युक्त, हिलते हुए - होगा, जब कि हनुमत्पक्ष में सीधा अर्थ होगा । इसी पद में 'केसर' का श्लिष्ट प्रयोग है, जो क्रमशः पुष्पकेसर' तथा 'हनुमान् के अयाल' के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी तरह 'ताराधिपमण्डल' तथा 'राम ( रामा ), शब्द के श्लिष्ट प्रयोग में भी साधारण धर्म के दुहरे अर्थ होंगे । इस प्रकार यहाँ अनुगामिता, श्लेष तथा उपचार का मिश्रण पाया जाता है । लुप्तोपमा के प्रकरण में दीक्षित ने केवल आठ भेदों का ही सोदाहरण संकेत किया है। इसके बाद दीक्षित ने मम्मटादि के २५ उपमाभेद - ६ पूर्णाभेद तथा १९ लुप्ताभेदों- का भी संकेत किया है पर व्याकरणशास्त्र के आधार पर किये गये इस भेद प्रकल्पन से अरुचि ही दिखाई है । 'एवमयं पूर्णा लुप्ताविभागो वाक्य समासप्रत्ययविशेषगोचरतया शब्दशास्त्रन्युत्पत्तिकौशल प्रदर्शनमात्रप्रयोजनो नातीवालंकारशास्त्रे व्युत्पाद्यतामर्हति ।' (चित्रमीमांसा पृ० ३१) दीक्षित ने उपमा को पुनः तीन तरह का बताया है : ( १ ) स्ववैचित्र्य मात्र विश्रान्ता, जहाँ उपमा का चमत्कार स्वयं में ही समाप्त हो जाय अन्य किमी अर्ध की गति में महायक न हो ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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