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________________ (६) 'एकदा' पद के द्वारा विद्यानाथ ने उपमेयोपमा का वारण किया है, पर हम देखते हैं कि कई स्थलों पर दो वाक्यों में भी उपमा हो सकती है, जैसे 'परस्परोपमा' में, अतः यह पद व्यर्थ है।' . इसके बाद दीक्षित ने भोजराज के लक्षण को सदोष बताया है। भोज का लक्षण यह है"जहाँ दो पदार्थों में प्रसिद्धि के कारण परस्पर अवयव-सामान्य का योग ( अवयवों की समानता) का वर्णन किया जाय, वहाँ उपमा होती है।" प्रसिद्धरनुरोधेन यः परस्परमर्थयोः। भूयोऽवयवसामान्ययोगः सेहोपमा मता ॥ ( सरस्वती०) इसमें दो दोष है :-(१) पहिले तो उपमानोपमेय का साधर्म्य अवयव (आकृति ) मूलक माना है, जब कि उपमा में गुण, क्रियादि को लेकर भी साधर्म्य वर्णन हो सकता है, (२) इसमें मी कल्पितोपमा का समावेश नहीं हो पाता, क्योंकि वहाँ 'प्रसिद्धि का अनुरोध' नहीं होता। दीक्षित ने उपमा के दो लक्षण दिये हैं :(१) जिस सादृश्य वर्णन में उपमिति क्रिया की निष्पत्ति हो, वह उपमा है। (उपमितिक्रियानिष्पत्तिमत्सादृश्यवर्णनमुपमा।-चित्र० पृ० २०) ( २ ) जो सादृश्यवर्णन अपने निषेध में पर्यवसित न हो, वहाँ उपमा होती है । (स्वनिषेधापर्यवसायिसादृश्यवर्णनमुपमा-वही पृ० २०) अप्पय दीक्षित ने बताया है कि इन्हीं लक्षणों के साथ 'अदुष्ट' तथा 'अव्यंग्यं' विशेषण लगा देने पर उपमा अलंकार का लक्षण बन जायगा । (अलंकारभूतोपमालक्षणं वेतदेवादुष्टाम्यंग्यत्वविशेषितम्-(वही पृ० २०) इस प्रकार वह सादृश्यवर्णन, 'जो निर्दोष हो तथा वाच्य (व्यंग्य न ) हो, एवं उपमिति क्रिया में निष्पन्न हो अथवा जो अपने ( सादृश्य ) के निषेध में निष्पन्न न हो, उपमा है।' उपमालक्षण पर विचार करने के बाद दीक्षित ने उपमा के पूर्णा तथा लुप्ता भेदों का संकेत किया है। पूर्णा के साधारण धर्म का विचार करते हुए दीक्षित ने बताया है कि साधारण धर्म निम्न प्रकारों में से किसी एक तरह का हो सकता है. :-१. अनुगामिरूप, २. वस्तुप्रतिवस्तुभावरूप, ३. बिंबप्रतिविभावरूप, ४. श्लिष्ट, ५. औपचारिक, ६. समासान्तराश्रित ७. मिश्रित । इसी सम्बन्ध में वे बताते हैं कि लुप्ता में केवल अनुगामिरूप ही धर्म पाया जाता है। पंडितराज ने दीक्षित के इस मत को नहीं माना है । वे बताते हैं कि 'मलय इव जगति पाण्डवल्मीक इवाधि. धरणि धृतराष्ट्र' जैसी लुप्तोपमा में भी साधारण धर्म बिंबप्रतिबिंबभावरूप हो सकता है । दीक्षित ने विस्तार के साथ एक-एक साधारण धर्म के रुचिर उदाहरण उपन्यस्त किये हैं। मिश्रित साधारण धर्म के अनेकों प्रकार उदाहृत किये गये हैं। हम यहाँ इस प्रसंग में विस्तार से जाना अनावश्यक समझते हैं, जिज्ञासुगण चित्रमीमांसा पृ० ११-२५ देख सकते हैं। दिङमात्र के लिए यहाँ मिश्रित साधारण धर्म के दो उदाहरण उपन्यस्त किये जा रहे हैं, जिससे विषय का स्पष्टीकरण हो सकेगा। 'नृपं तमावर्तमनोज्ञनाभिः सा व्यत्यगादन्यवधू वित्री। महीधरं मार्गवशादुपेतं स्रोतोवहा सागरगामिनीव ॥' १.चित्रमीमांसा पृ०९-१३. २. चित्रमीमांसा प०१६.
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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