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________________ [ ४३] समय ) सुन्दर विकास के कारण शीघ्र ही एक दूसरे की तुलना (समानता) को धारण करें।" यहाँ 'नेत्र' तथा 'कमल' को एक दूसरे का उपमानोपमेय बताया गया है, यह 'परस्परतुलामधिरोहतां' से स्पष्ट है । पर यहाँ दो वाक्यों का प्रयोग नहीं है। वस्तुतः इस पथ में भी उपमेयोपमा ही है। (२) साथ ही उक्त लक्षण निम्न पद्य में अतिव्याप्त होता है, जब कि यहाँ उपमेयोपमा अलंकार न होकर परस्परोपमा है। रजोभि स्यन्दनोदभूतैर्गजैग धनसंनिभैः। भुवस्तलमिव व्योम कुर्वन् पोमेव भूतलम् ॥ यहाँ पृथ्वी तथा व्योम के साधारण धर्म भिन्न-भिन्न हैं :-एक स्थान पर हाथी है, दूसरे स्थान पर मेघ, इसलिए इनमें बिम्बप्रतिबिम्बमावरूप धर्म हैं। उपमेयोपमा तभी हो सकती है, जब धर्म या तो अनुगामी हो या वस्तुप्रतिवस्तुभावरूप । अतः यहाँ 'तृतीय सब्रह्मचारी के निषेध' (इनके समान तीसरा पदार्थ संसार में है ही नहीं) की प्रतीति नहीं होती। उपमेयोपमा में यह आवश्यक है कि वहाँ 'तृतीय सब्रह्मचारिध्यवच्छेद' की प्रतीति हो।' फलतः यहाँ उक्त लक्षण का अतिव्याप्त होना दोष है। दीक्षित ने उपमेयोपमा का लक्षण यह दिया है :-'जहाँ एक ही धर्म के आधार पर उपमेय तथा उपमान में परस्पर एक दूसरे के साथ व्यञ्जना से या अन्य वृत्ति से उपमा प्रतिपादित की जाय वहाँ उपमेयोपमा होती है।' अन्योन्येनोपमा बोध्या व्यक्त्या वृत्त्यन्तरेण वा। एकधर्माश्रया या स्यात्सोपमेयोपमा स्मृता ॥ (३) अनन्वय चित्रमीमांसा का तीसरा अलंकार अनन्वय है। अनन्वय का प्राचीनों का लक्षण यह है :'जहाँ एक ही पदार्थ उपमान तथा उपमेय दोनों हो, वहाँ अनन्वय अलंकार होता है'। (एकस्यैः वोपमानोपमेयस्वेऽनन्वयो मतः-(चित्र० पृ० ४७)। (१) एक ही पदार्थ (एकस्यैव ) के द्वारा यहाँ उपमेयोपमा तथा रसनोपमा की व्यावृत्ति की गई है, क्योंकि वहाँ दो पदार्थ या अनेक पदार्थे उपमानत्व तथा उपमेयत्व , धारण करते हैं। (२) इसमें धर्म सदा अनुगामी होता है। दीक्षित ने बताया है कि 'एक ही पदार्थ का उपमानोपमेयभाव कभी-कभी अनन्वय का क्षेत्र नहीं होता। हम देखते हैं कि कई स्थानों पर कवि उपमैय को ही किसी भिन्न धर्म के आधार पर उपमान बना देता है, जैसे निम्न पद्य में 'उपाददे तस्य सहस्त्ररश्मिस्त्वष्ट्रा नवं निर्मितमातपत्रम् । स तद्दुकूलादविदूरमौलिर्बभौ पतङ्ग इवोत्तमाङ्गे ॥' १. न पत्र धर्मस्य साधारण्यं वस्तुप्रतिवस्तुमावो वास्ति। गगनस्य भूतलेन सादृश्ये रजोव्याप्तत्वं साधारणधर्मः। भूतलस्य गगनेन सादृश्ये गजानां मेघानां च बिम्बप्रतिबिम्बभाव इत्यत्यन्तविलक्षणत्वात् । अत एवात्र तृतीयसब्रह्मचारिव्यवच्छेदरूपं फलमपि न सिद्धयति । (चित्रमीमांसा पृ० ४३)
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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