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________________ ३०२ कुवलयानन्दः १२३ सङ्करसङ्करालङ्कारः कचित्सङ्कराणामपि सङ्करो दृश्यते । यथा मुक्ताः केलिविसूत्रहारगलिताः संमार्जनीभिर्हताः प्रातः प्राङ्गणसीनि मन्थरचलद्वालाङ्घ्रिलाक्षारुणाः । दूराद्दाडिमबीजशङ्कितधियः कर्षन्ति केलीशुका यद्विद्वद्भवनेषु भोजनृपतेस्तन्यांगलीलायितम् | अत्र तावद्विदुषां संपत्समृद्धिवर्णन मुदात्तालङ्कारस्तन्मूलको 'बालाङ्घ्रिलाक्षारुणा' इत्यत्र तद्गुणालङ्कारस्तत्रैव वक्ष्यमाणभ्रान्त्युपपादकः पदार्थहेतुककाव्यलिङ्गालंकारश्चेति तयोरेकवाचकानुप्रवेशसंकरः । तन्मूलः 'शंकितधियः' इत्यत्र भ्रान्तिमदलंकारस्ताभ्यां चोदात्तालंकारश्चारुतां नीत' इति तयोश्च तस्य चाङ्गाङ्गि 'भावेन संकरः । एवं विदेहवैभवस्य हेतुमतो राज्ञो वितरणविलासस्य हेतोश्चाभेदकथनं हेत्वलंकारः । स च राज्ञो वितरणविलासस्य निरतिशयोत्कर्षाभि• व्यक्तिपर्यवसायी । एतावन्मात्रे कविसंरम्भश्चेदुक्तरूपोदात्तालंकारपरिष्कृते हेत्वलंकारे विश्रान्तिः । वर्णनीयस्य राज्ञः कीदृशी सम्पदिति प्रश्नोत्तरतया निरतिश यहाँ यह बात नहीं, क्योंकि दोनों की स्पष्टतः निश्चित प्रतोति होती है । इसलिए यहाँ उदात्त तथा अतिशयोक्ति का एकवाचकानुप्रवेश संकर है । १२३. संकरसंकर अलंकार कहीं कहीं संकर अलंकारों का भी संकर पाया जाता है, जैसे 'यह भोजराज के त्याग की लीला है कि विद्वानों के घरों में, सुरतक्रीडा के समय टूटे हुए हारों से बिखरे हुए, झाड़ू के द्वारा एक ओर हटाये हुए वे मोती, जो प्रातःकाल के समय आंगन में धीरे धीरे चलती हुई बालाओं ( रमणियों) के चरणों के लाक्षारस के कारण लाल हो गये हैं; दाडिम के बीज की भ्रांति से युक्त बुद्धि वाले केलिशुकों के द्वारा खींचे जा रहे हैं। यहाँ विद्वानों की संपत्ति तथा समृद्धि का वर्णन है, अतः उदात्त अलंकार है, इसी में 'बालाओं के चरणों की लाक्षा से लाल' इस उक्ति में तद्गुण अलंकार है, तथा वहीं आगे कहे जाने वाले भ्रांति अलंकार की प्रतीति कराने वाला पदार्थ हेतु काव्यलिंग अलंकार भी है । इन तद्गुण तथा काव्यलिंग दोनों का एकवाचकानुप्रवेश संकर है । इन्हीं के द्वारा 'शंकितधियः' इस पद से भ्रांतिमान् अलंकार प्रतीत हो रहा है । यह संकर तथा भ्रांतिमान् दोनों मिलकर उदात्त अलंकार की शोभा बढ़ाते हैं, अतः ये दोनों उदात्त अलंकार के अंग 'हैं, इस प्रकार अंगांगिभाव संकर है। इसके अतिरिक्त इस पद्य में विद्वानों के घर का वैभव रूप हेतुमान् ( कार्य ) तथा राजाभोज के दानवैभवरूप हेतु ( कारण ) का अभेद कथन ( वह वैभव त्याग लीला का कार्य है, यह न कहकर, वह स्वयं तुम्हारे त्याग की लीला है, यह कहना ) हुआ है, अतः यहाँ हेतु अलंकार भी है। यह हेतु अलंकार राजा भोज के दानवैभव के अत्यधिक उत्कर्ष की अभिव्यञ्जना कराता है । यदि कवि का भाव 'यही है, तो उपर्युक्त उदात्त अलंकार के द्वारा पुष्ट हेतु अलंकार में विश्रान्ति हो जाती है । पर ऐसा भी हो सकता है कि कवि का भाव यह न रहा हो, किसी व्यक्ति ने कवि से
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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