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________________ सङ्करालङ्कारः २०३ येश्वर्यवितरणरूपाप्रस्तुतकार्यमुखेन तदीयसम्पदुत्कर्षप्रशंसने कविसंरम्भश्चेत् कार्यनिबन्धनाप्रस्तुतप्रशंसालंकारे विश्रान्तिः । कार्यस्यापि वर्णनीयत्वेन प्रस्तुतत्वाभिप्राये तु प्रस्तुताङ्कुरेऽपि विश्रान्तिः । अत्र विशेषानध्यवसायात् संदेहसंकरः । किंच विद्वद्गृहवैभववर्णनस्यासंबन्धे संबन्धकथनरूपतयाऽतिशयोक्ते रुदात्तालंकारेण सहैकवाचकानुप्रवेशसंकरः । निरतिशयवितरणोत्कर्ष पर्यवसायिनो हेत्वलंकारस्याप्यद्भुतातथ्यौदार्यवर्णनात्मिकयात्युक्त्या सहैकवाचकानुप्रवेशसंकरः । तन्मूलकस्याप्रस्तुतप्रशंसालंकारस्य प्रस्तुताङ्कुरस्य वा राजसंपत्समृद्धिवर्णनात्मकोदात्तालंकारेण स है कवाचकानुप्रवेशसंकरः । वाचकशब्दस्य प्रतिपादकमात्रपरतया व्यञ्जकसाधारण्यात् । एषां च त्रयाणामेकवाचकानुप्रवेशसंकराणां समप्राधान्यसंकरः । न ह्येतेषां परस्परमन्यत्राङ्गत्वमस्ति । उदात्तादिमात्रस्यैव हेत्वलंकारादिचारुतापादकत्वेनातिशयोक्तिसंकरस्याङ्गतयानपेक्षणात् । एवमत्र श्लोके चतुर्णामपि संकराणां यथायोग्यं संकरः । एवमन्यत्राप्युदाहरणान्तराण्यूानि ॥ वर्णनीय राजाभोज की दानशीलता के संबंध में प्रश्न किया हो, और कवि अतिशय दानवैभव के अनुसार कार्य का वर्णन कर उसके द्वारा राजा की प्रस्तुत समृद्धि की प्रशंसा करना चाहता हो, यदि कवि का भाव यह रहा हो तो अप्रस्तुत कार्य के द्वारा प्रस्तुत कारण की व्यंजना वाली अप्रस्तुतप्रशंसा माननी होगी। ऐसा भी हो सकता है कि कवि के लिए विद्वत्समृद्धिरूप कार्य का वर्णन ही प्रस्तुत रहा हो, फिर तो यहाँ प्रस्तुतांकुर अलंकार होगा । इस प्रकार यहाँ हेतु, अप्रस्तुतप्रशंसा तथा प्रस्तुतांकुर अलंकार में से कौन सा अलङ्कार है, इसका निश्चय नहीं हो पाता, अतः यहाँ संदेहसंकर है । इसके अतिरिक्त इस पद्य में एक ही अर्थ के अन्तर्गत विद्वानों के गृहवैभव का वर्णन करते हुए असंबंधे संबंधकथनरूपा अतिशयोक्ति का उदात्त अलंकार के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर भी पाया जाता है । यहीं नहीं, राजा के अत्यधिक दान देने के उत्कर्ष की प्रतीति करनेवाला हेतु अलंकार भी उसकी अद्भुत उदारता तथा आतिथ्य का वर्णन करने वाली अत्युक्ति के साथ एकवाचकानुप्रविष्ट है, अतः हेतु एवं अत्युक्ति का एकवाचकानुप्रवेश संकर भी पाया जाता है । इस अलङ्कार के द्वारा प्रतीत अप्रस्तुतप्रशंसा या प्रस्तुतांकुर अलङ्कार का पुनः राजसमृद्धिवर्णनामक उदात्त अलङ्कार के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर होता है। इस संबंध में पूर्वपक्षी यह शंका कर सकता है कि राजा की संपत्ति तथा समृद्धि की प्रतीति तो व्यञ्जनागत है, अतः उसके अवाच्य ( वाध्यातिरिक्त) होने के कारण उसका वर्णन करने वाले उदात्त अलंकार के साथ एकवाचकानुप्रवेश कैसे हो सकता है ? इसी शंका का उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'वाचक' शब्द का अर्थ यहाँ केवल 'मुख्या वृत्ति' ( अभिधा ) वाले शब्द से न होकर अर्थप्रतीति मात्र कराने वाले शब्द से है, अतः इसमें व्यञ्जक भी समाविष्ट हो जाता है । इस काव्य में ऊपर जिन तीन एकवाचकानुप्रवेश संकरों का उल्लेख किया गया है, वे सब प्रधान है, अतः इनमें समप्रधान्यसंकर पाया जाता है । ये किसी एक दूसरे के अंग नहीं है । कोई यह शंका कर सकता है कि उदास अलंकार को पहले हेतु अलङ्कार का अंग माना गया है, अतः उदात्तातिशयोक्ति संकर अलङ्कार भी उदात्त का अंग हो जायगा ? इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि केवल उदात्तादि अलंकार ही हेतु अलङ्कार ( और अप्रस्तुप्रशंसा ) आदि की शोभा के कारण
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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