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________________ सङ्करालङ्कारः ३०१ अत्र हि प्रतिपाद्यमानोऽर्थः समृद्धिमद्वस्तुवर्णनमुदात्तमिति लक्षणानुसारादुदात्तालङ्काररूपः, असम्बन्धे संबन्धकथनमतिशयोक्तिरिति लक्षणादतिशयोक्तिरूपश्च । न च सर्वत्रोदात्तस्यासंबन्धे संबन्धकथनरूपत्वं निर्णीतमिति न विविक्तालंकारद्वयलक्षणसमावेशोऽस्तीति वाच्यम्; दिव्यलोकगत संपत्समृद्धिवर्णनादिष्वतिशयोक्त्य स्पृष्टस्योदात्तस्य शौर्यौदार्यदारिद्रयादिविषयातिशयोक्तिवर्णनेषूदात्तास्पृष्टाया अतिशयोक्तेश्च परस्परविविक्ततया विश्रान्तेः तयोश्चेहार्थवसंपन्न समावेशयोर्नाङ्गाङ्गिभावः । एकेनापरस्यानुत्थापनात् स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्यविशेषादर्शनाच्च । नापि समप्राधान्यम् ; यैः शब्दैरिह संबन्धि वस्तु प्रतिपाद्यते तैरेव तस्यैव वस्तुनोऽसंबन्धे संबन्धरूपस्य प्रतिपाद्यमानतया भिन्नप्रतिपादकशब्दव्यवस्थितार्थ भेदाभावात् । नापि संदेहसङ्करः एकालङ्कारकोटयां तदन्यालंकार कोटि प्रतिक्षेपाभावात् । तस्मादिहोदात्तातिशयोक्त्योरेकवाचकानुप्रवेशलक्षणः संकरः । 1 इस पद्य के द्वारा प्रतीत अर्थ में एक ओर समृद्धिशाली वस्तु का वर्णन होने के कारण उदात्त अलंकार तथा असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति की प्रतीति हो रही है । यहाँ उपवन की समृद्धि के वर्णन में उदात्त अलंकार है ( समृद्धिमद्वस्तुवर्णनमुदात्तम् ), तथा दमयंती के वन में असंबद्ध वस्तुओं का भी संबंध बनाना अतिशयोक्ति है । कुछ लोग शायद यह शंका करें कि जहाँ कि समृद्धिशाली वस्तु का वर्णन होता है, वहाँ सर्वत्र 'असंबंधे संबंधकथन' होता ही है, वहाँ अतिशयोक्ति सदा रहती है, फलतः यहाँ दो अलंकारोंउदात्त तथा अतिशयोक्ति के लक्षण घटित नहीं होते । पर यह शंका करना ठीक नहीं । क्योंकि कई स्थानों पर उदात्त अलंकार 'असंबंधे संबंधरूपा' अतिशयोक्ति के बिना भी देखा जा सकता है, यथा स्वर्गादिलोक की संपत्ति तथा समृद्धि का वर्णन करते समय उदात्त अलंकार तो होता है, पर वहाँ अतिशयोक्ति का स्पर्श नहीं होता। इसी तरह कई स्थलों में अतिशयोक्ति होती है, पर उदात्त नहीं, यथा शूरता, उदारता, दरिद्रता आदि के वर्णनों में उदात्त अलंकार से अस्पृष्ट ( रहित ) अतिशयोक्ति पाई जाती है । अतः स्पष्ट है कि दोनों अलंकार परस्पर भसंपृक्त होकर भी स्थित रह पाते हैं । इस पद्य (विधुकर आदि) में ये दोनों अलंकार केवल अर्थवश के कारण ही एक साथ हैं । अतः ये एक दूसरे के अंग या अंगी नहीं हैं। क्योंकि यदि इनमें अंगांगिभाव होता तो एक अलंकार दूसरे का उत्थापक ( सहायक ) होता तथा उनमें एक स्वतंत्र ( अंगी ) होता दूसरा परतन्त्र ( अंग ), पर यहाँ न तो कोई किसी का सहायक ही है, न इनमें स्वातन्त्र्य- पारतन्त्र्य का परस्पर अस्तित्व ही दिखाई देता है । इसी तरह इन दोनों अलंकारों का समप्राधान्य भी नहीं माना जा सकता। समप्रधान अलंकारों में प्रतिपादक शब्द तथा प्रतिपाद्य अर्थ अलग अलग होते हैं । यहाँ जिन शब्दों के द्वारा समृद्धिशाली वस्तु की प्रतीति होती है, ठीक उन्हीं शब्दों से उसी वस्तु के असंबंध में संबंध रूप की प्रतीति होती है । भाव यह है, जिन शब्दों से उदात्त की प्रतीति होती है, उन्हीं से अतिशयोक्ति भी प्रतीत हो रही है । अतः यहाँ प्रतिपादक शब्द तथा प्रतिपाद्य अर्थ के अभिन्न होने के कारण समप्राधान्य संकर न हो सकेगा। इसी तरह यहाँ संदेह संकर भी नहीं है, क्योंकि संदेह संकर में चित्तवृत्ति एक अलंकार को मानने पर उसे अन्य कोटि के अलंकार में फेंक देती है, अर्थात् संदेह संकर में एक अलंकार का निश्चय नहीं हो पाता
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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