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________________ [ ३५ ] विशदीभवदर्थस्यापतिर्मिषतः । ( अलंकारकौस्तुम पृ० ३५७ ) साथ ही यदि बग-अलग प्रकार से रहस्य के गोपन में अलग-अलग अलंकार माने जाते हैं, तो अन्य अलंकारों की कल्पना करनी पड़ेगी। अतः युक्ति का ब्याजोक्ति में ही अन्तर्भाव हो जाता है। 'यत्तु 'दम्पत्योर्निशि जल्पतो"वाग्बन्धनम्' इत्यत्र युक्तिरलंकारः। म्याजोको वचसा गोपनम् , इह तु क्रियया, इति योर्भेद इति । तन्न । ब्याजोकिलक्षणस्योभयसाधारण्यात् । तत्रोक्तिनिवेशस्य गौरवपराहतस्वात् । अन्यथा प्रकारान्तरेण गोपनस्थलेऽलंकारांतरप्रसं. गात् । तत्राप्युक्तक्रियान्यस्वनिवेशस्य सुवचत्वादिति दिक।' (अलंकारकौस्तुभ पृ० ३५८) इस संबंध में इतना संकेत कर देना अनावश्यक न होगा कि दीक्षित का 'युक्ति' अलंकार, जो अर्थालंकार है, ठीक इसी नाम वाले भोजराज के शब्दालंकार से भिन्न है। भोजराज के २४ शब्दालंकारों में एक 'युक्ति' भी है। यह शब्दालंकार वहाँ माना गया है, जहाँ परस्पर अयुज्यमान शम्द या अर्थ की योजना की जाती है । इसके छः भेद माने गये हैं:-पदयुक्ति, पदार्थयुक्ति, वाक्ययुक्ति, वाक्यार्थयुक्ति, प्रकरणयुक्ति, प्रबंधयुक्ति । इनके उदाहरण सरस्वतीकंठाभरण में देखे जा सकते हैं। प्रबंधयुक्ति का उदाहरण यह है । मेघदूत में यक्ष के द्वारा मेघ को संदेशवाहक बनाना असंगत प्रतीत होता है, यह अर्थ की अयुज्यमानता है, इसकी योजना करने के लिए कवि ने आरंभ में ही अपने प्रबंध की कथावस्तु को सोपपत्तिक बनाने के लिए इस बात की युक्ति दी है कि 'कामात व्यक्ति चेतन तथा अचेतन प्रागियों के परस्पर भेद को जानने में असमर्थ रहते हैं। तथा इस युक्ति से मेघ को संदेशवाहक बनाने की अनुपयुज्यमानता की पुनः योजना कर उसे संगत बना दिया है। अतः निम्न पद्य में युक्ति अलंकार है । धूमज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपातः क मेघः संदेशार्थाः क पटुकरणः प्राणिमिः प्रापणीयाः। इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥ स्पष्ट है, दीक्षित की 'युक्ति' का भोजराज की 'युक्ति' में कोई संबंध नहीं। १३. लोकोक्ति, १४. छेकोकि:-ये दोनों अर्थालंकार भी सर्वप्रथम दीक्षित में ही दिखाई पड़ते हैं । पर इनकी कल्पना का श्रेय मो दीक्षित को नहीं जा पाता। भोजराज ने अपने सरस्वतीकंठाभरण में 'छाया' नामक शब्दालंकार की कल्पना की है। इसी अलंकार के छः भेदों में दो भेद लोकोक्तिच्छाया तथा छेकोक्तिच्छाया है। भोजराज ने लोकोक्तिच्छाया वहाँ मानी है, जहाँ कवि काव्य में लोकोक्ति ( मुहावरे ) का अनुसरण करता है। इसका उदाहरण भोजराज ने 'शापांतो मे भुजगशयनादुत्थिते शाङ्गपाणी शेषान् मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा' इत्यादि पद्य की 'लोचने मीलयित्वा' यह लोकोक्ति दी है। दीक्षित ने भी लोकोक्ति अलंकार वहाँ माना है जहां काव्य में लोकोक्ति का प्रयोग किया जाय तथा उनका कारिकाध का उदाहरण भी 'लोचने मीलयित्वा' ही है। (दे० कुवलयानंद पृ० २५७) भोजराज ने छेकोक्तिच्छाया वहाँ मानी है, जहाँ कवि काव्य में किसी विदग्ध (छेक) व्यक्ति की उक्ति का अनुसरण करता है, दीक्षित की छेकोक्ति की कल्पना का आधार तो भोजराज का हो मत है, किंतु दीक्षित ने इसे कुछ परिवर्तित कर दिया है । दीक्षित के मत से लोकोक्ति के एक विशेष प्रकार का १. दे० सरस्वतीकण्ठाभरण पृ० १७२ । २. दे० सरस्वतीकण्ठामरण पृ० १६४-१६५
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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