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________________ [ ३६ ] प्रयोग छेकोक्ति है। जब कोई विदग्ध ( छेक ) वक्ता किसी लोकोक्ति का प्रयोग कर किसी अन्य गूढ़ अर्थ की व्यंजना कराना चाहता है, तो वहां छेकोक्ति होती है। इस तरह दीक्षित की छेकोक्ति लोकोक्ति का प्ररोह मात्र है, जब कि भोजराज की छेकोक्ति लोकोक्ति से संश्लिष्ट नहीं होती । दीक्षित तथा भोज की छेकोक्ति में समानता इतनी है कि दोनों का प्रयोक्ता कोई विदग्ध व्यक्ति होता है । १५. निरुक्ति : - निरुक्ति अलंकार का संकेत अन्यत्र नहीं मिलता । यह अलंकार वहाँ माना गया है, जहाँ किसी नाम का यौगिक अर्थ लेकर अर्थ की कल्पना की जाय । निरुक्ति को अलग से अलंकार मानना ठीक नहीं। इसका समावेश काव्यलिंगादि अन्य अलंकारों में हो सकता है । १६ प्रतिषेध, १७ विधि :- जहाँ प्रसिद्ध निषेध का पुनः निषेध किया जाय, वहाँ प्रतिषेध अलंकार होता है । विधि अलंकार इसका ठीक विरोधी है, यहाँ सिद्ध वस्तु की सिद्धि करने के लिए पुनः विधान किया जाता है | ( इनके परिचय के लिये - दे० कुवलयानंद पृ० २६४-६५ ) इन अलंकारों का जयदेव में कोई उल्लेख नहीं है। शोभाकर मित्र के अलंकार • रलाकर में 'विधि' नामक अलंकार का उल्लेख अवश्य है। शोभाकर के मत से 'विधि' अलंकार वहाँ होता है, जहाँ किसी असंभाव्य हेतु या फल के प्रति चेष्टा विवक्षित की जाय । ( असंभाग्यहेतुफलप्रेषणं विधिः- सूत्र ८२ ) इसके दो भेद होंगे :- १. असंभाव्यहेतुप्रेषण, २ . असंभाव्यफलप्रेषण । इसमें प्रथम भेद का उदाहरण निम्न पथ है, जहाँ लक्ष्मण ने पृथ्वी, शेष, कूर्मराज, दिग्गज आदि से स्थैर्य धारण करने को कहा है। यहाँ पृथ्वी आदि का स्थैर्य तो स्वतः संभाव्य है ही, अतः असंभाव्यमानता केवल उनके चांचल्य या अस्थिरता की ही है। राम के द्वारा शिव धनुष के तोड़े जाने पर, उसके कारण ( तद्धेतुक ) पृथ्व्यादि की चंचलता असंभाव्य है, किंतु फिर भी कवि ने लक्ष्मण की उक्ति के द्वारा उसकी चेष्टा को पृथ्वी की चंचलता का कारण बताया है, अतः यहाँ हेतु वाला विधि नामक अलंकार है । ' पृथ्वि स्थिरा भव भुजंगंम धारयैनां स्वं कूर्मराज तदिदं द्वितयं दधीथाः । दिक्कुंजराः कुरुत संप्रति संदिधीष देवः करोति हरकार्मुकमाततज्यम् ॥ इस विवेचन से स्पष्ट है कि रत्नाकर के 'विधि' नामक अलंकार से दीक्षित के 'विधि' नामक अलंकार का कोई संबंध नहीं है। 'प्रतिषेध' नामक अलंकार रत्नाकर में नहीं है, इस नाम का एक अलंकार यशस्क के ‘अलंकारोदाहरण' में है । दीक्षित ने इसे वहीं से लिया है । कुवलयानंद के परिशिष्ट में दीक्षित ने रुय्यक तथा जयदेव के आधार पर सात रसवदादि अलंकारों का वर्णन किया है । तदनंतर १० प्रमाणालंकारों का उल्लेख है। रसवदादि अलंकारों को तो प्रायः सभी आलंकारिकों ने माना है, यहाँ तक कि गुणीभूतव्यंग्य का विचार करते समय मम्मट तक ने उनके अलंकार माने जाने का संकेत किया है, यद्यपि मम्मट ने दशम उल्लास में उनका वर्णन नहीं किया है, किंतु प्रमाणालंकारों को केवल एक ही आलंकारिक ने कल्पित किया है। भोजराज ने सरस्वतीकंठाभरण में जैमिनि के छः प्रमाणों को अपने २४ अर्थालंकारों की १. अलंकारर लाकर पृ० १४२ ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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