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________________ (१०) गूढोक्कि, (११) विधृतोक्कि !-गूढोक्ति तथा चिवृतोक्ति अलंकारों का उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता । वस्तुतः ध्वनिवादियों की उस वस्तुध्वनि में जहाँ श्लिष्ट पदों का प्रयोग कर बक्ता किसी बात को तटस्थ व्यक्तियों से छिपाने के लिए किसी अभीष्ट व्यक्ति को अपना उद्देश्य प्रकट करता है, कुछ ऐसे आलंकारिकों ने जो ध्वनि को नहीं मानते थे, विवृतो क्ति की कल्पना की होगी। ये आलंकारिक कौन थे, इसका पता नहीं है। इन्हीं आलंकारिकों ने उस स्थल पर जहाँ कवि स्वयं वक्ता के इस प्रकार के दिलष्ट गुप्त वचन में उसके अभिप्राय को प्रकट कर देता है, विवृतोक्ति मानी है। इस प्रकार गूढोक्ति तथा विवृतोक्ति में बड़ा सूक्ष्म भेद है:१. उनमें समानता यह है कि दोनों में वक्ता श्लिष्ट वचन का प्रयोग करता है, जिससे तटस्थ या अनभीष्ट श्रोता उसे न समझ पाया; २. दोनों में द्वितीयार्थ प्रतीयमान होता है। इसमें भिन्नता यह है कि गूढोक्ति में कवि पद्य में वक्ता के अभिप्राय का संकेत नहीं करता तथा सहृदय ही प्रकरणादि के कारण यह समझ लेता है कि वक्ता का अभिप्राय इस अर्थद्वय में अमुक है, श्लिष्ट वचन का प्रयोग उसने दूसरों को ठगने के लिये किया है। जब कि विवृतोक्ति में कवि श्लिष्ट वचन में वक्ता के विवक्षित अर्थ को विवृत (प्रकट) कर देता है। ध्यान देने पर पता चलेगा कि यह दोनों भेद ध्वनिवादी की वस्तुध्वनि तथा गुणीभूतव्यंग्य में समाहित हो सकते हैं। गूढोक्ति में कुछ नहीं वस्तुध्वनि है। इसका स्पष्टीकरण दीक्षित के द्वारा उदाहृत-'नाथो मे विपणिं गतो न गणयत्येषा सपरनी च मां' इत्यादि पद्य (दे० पृ० २५३ ) से हो सकता है। विवृतोक्ति में कवि वाच्यार्थ को मुख्य बना देता है, यहाँ व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ का उपस्कारक बन जाता है, क्योंकि व्यंग्यायं को कवि स्वयं ही प्रकट कर देता है। ऐसी स्थिति में यहाँ गुणीभूतव्यंग्य नामक काव्य भेद होता है । इसकी पुष्टि दीक्षित के द्वारा विवृतोक्ति के प्रकरण में उदाहृत 'वत्से मा गा विषादं' 'दृष्टया केशव गोपरागहतया' गच्छाम्यच्युतदर्शनेन भवतः' इत्यादि पद्यों से होती है, ( दे० पृ० २५४-५५) जहाँ भानन्दवर्धन ने गुणीभूतव्यंग्यत्व ही माना है। हमारे मत से इन दोनों अलंकारों का क्रमशः ध्वनि तथा गुणीभूतव्यंग्य में ही समावेश होने से इनकी कल्पना व्यर्थ है। प्रत्येक ध्वनिभेद एवं गुणीभूतव्यंग्यभेद में नवीन अलंकार की कल्पना करने से अलंकारों का आनन्त्य होगा, साथ ही अलंकार्य तथा अलंकार की विभाजक रेखा असष्ट हो जायगी। १२. युक्ति:-युक्ति भी कुवलयानन्द का नया अलंकार है । वस्तुतः यह कोई नया अलंकार न होकर मम्मटादि के द्वारा वर्णित व्याजोक्ति नामक अलंकार का ही एक प्ररोह मात्र है। ब्याजोक्ति तथा युक्ति के परस्पर भेद को बताते हुए दीक्षित लिखते हैं कि जहाँ किसी अन्य हेतु को बताकर उक्ति से किसी रहस्य या आकार को छिपाया जाय, वहाँ व्याजोक्ति अलंकार होता है तथा जहाँ क्रिया के द्वारा किसी रहस्य को छिपाया जाय, वहाँ युक्ति अलंकार होता है। 'व्याजोक्ति में आकार का गोपन किया जाता है, युक्ति में आकार से भिन्न वस्तु का' (व्याजोता. वाकारगोपनं युक्तौ तदन्यगोपनमिति भावः। (कुवलयानन्द पृ० २५६ ) इसी प्रकरण में दीक्षित ने एक अन्य मत भी उपन्यस्त किया है, जिसके मतानुसार व्याजोक्ति में रहस्य का गोपन उक्ति ( वचन ) के द्वारा किया जाता है, युक्ति में क्रिया के द्वारा । (यद्वा व्याजोक्तावप्युक्त्या गोपनमिह तु क्रियया गोपनम्, इति भेदः । (कुव० पृ० २५६ ) मम्मटादि के अनुगमनकर्ता आलंकारिक युक्ति का समावेश व्याजोक्ति में ही करते हैं। अलंकारकौस्तुभकार विश्वेश्वर ने दीक्षित के मत का उल्लेखकर खंडन किया है तथा बताया है कि व्या जोक्ति का लक्षण युक्ति में भी घटित हो ही जाता हैं, क्योंकि हमारा व्याजोक्ति का लक्षग यह है कि वहाँ प्रकट होते अर्थ ( रहस्य ) को किसी व्याज से छिपाया जाता है। (ग्याजोक्तिः
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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