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________________ वक्रोक्त्यलङ्कारः २५६ __ ९२ वक्रोक्त्यलङ्कार वक्रोक्तिः श्लेषकाकुभ्यामपरार्थप्रकल्पनम् । मुश्च मानं दिनं प्राप्तं नेह नन्दी हरान्तिके ॥ १५९ ॥ अत्र 'मानं मुञ्च, प्रयाता रात्रिः' इत्याशयेनोक्तायां वाचि नन्दिनं प्राप्तं मा मुश्चेत्यर्थान्तरं श्लेषेण परिकल्पितम् । यथा वा अहो केनेशी बुद्धि रुणा तव निर्मिता ? । त्रिगुणा श्रूयते बुद्धिर्न तु दारुमयी कचित् ।। इदमविकृतश्लेषवक्रोक्तेरुदाहरणम् । विकृतश्लेषवक्रोक्तेर्यथा भवित्री रम्भोरु ! त्रिदशवदनग्लानिरधुना स ते रामः स्थाता न युधि पुरतो लक्ष्मणसखः । है जो उसे धन से विमुख बना सके अतः वह धन का विजयी होगा, इस अर्थान्तर की प्रतीति इस लोकोक्ति से हो रही है। अतः यहाँ छेकोक्ति अलंकार है। ९२. वक्रोक्ति अलंकार १५९-जहाँ श्लेष या काकु में से किसी एक के द्वारा अर्थान्तर की कल्पना की जाय, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है । जैसे, (कोई नायक नायिका से मान छोड़ने को कह रहा है।) हे प्रिये, मान को छोड़ दे, देख अब तो दिन हो गया (तू रात भर मान करके बैठी रही, अब तो प्रसन्न हो जा)( इसमें 'मुञ्च मा नंदिनं प्राप्तं' से-'पास आये नन्दी को न छोड़ना' यह अर्थ लेकर नायिका उत्तर देती है-) 'यहाँ नंदी कहाँ है, अरे नंदी तो शिव जी के पास है। ___ यहाँ 'मान छोड़ दो, रात चली गई' इस आशय से कही नायकोक्ति में नायिका ने 'पास आये नंदी को न छोड़ देना' यह अर्थान्तर कल्पना की गई है, अतः यहाँ वक्रोक्ति अलंकार है । अथवा जैसे_कोई नायक ईर्ष्यामान-कषायित नायिका से कह रहा है-अरी कठोर हृदये, किसने तेरी यह बुद्धि इतनी कठोर (दारुणा, लकड़ी के द्वारा) बना दी है ? (नायिका का उत्तर है-) बुद्धि त्रिगुण (सत्व, रजस , तमस्) से युक्त तो सुनी जाती है, लकड़ी से बनी तो कहीं न सुनी गई है। (यहाँ 'दारुणा' पद (स्त्रीलिंग प्रथमकवचन रूप)-कठोर अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, इसी का वक्रोक्ति से 'दारुणा' (नपुंसक तृतीयैकवचन रूप)-लकड़ी के द्वारा यह अन्य . अर्थ कल्पित किया गया है।) यह अविकृतश्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण है। विकृतश्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण निम्न है: रावण सीता से कह रहा है :-'हे रम्भोरु सीते, अब देवताओं के मुख की शोभा फीकी पड़ जायगी, वह तेरा राम लक्ष्मण के साथ युद्ध में न ठहर पायगा, यह वानरों की सेना अब घोर विपत्ति का सामना करेगी (अथवा अब स्वर्ग में चली जायगी)।' इसका
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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