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कुवलयानन्दः
भुजङ्ग एव जानीते भुजङ्गचरणं सखे ! ॥ १५८ ॥
केनचित्कस्यचिद्वृत्तान्तं पृष्टस्य समीपस्थमन्यं निर्दिश्य 'अयमेव तस्य हृत्तान्तं जानाति' इत्युक्तवतोऽयमहेः पादानहिरेव जानातीति लोकवादानुकारः । अत्र म चायं लोकविदिते धनार्जनादिव्यापारे सहचारिणाविति विदितविषयतया लोकोक्त्यनुवादस्य प्रयोजने स्थिते रहस्येऽप्यनङ्गव्यापारे तस्यायं सहचर इति मर्मोद्घाटनमपि तेन गर्भीकृतम् ।
यथा वा
मलयमरुतां त्राता याता विकासित मल्लिकापरिमलभरो भो ग्रीष्मस्त्वमुत्सह से यदि । घन ! घटय तं त्वं निःस्नेहं य एव निवर्तने प्रभवति गवां किं नश्छिन्नं स एव धनंजयः ॥
raateer प्रोषिताङ्गनासखीवचने 'य एव गवां निवर्तने प्रभवति स एव धनंजयः' इत्यान्ध्रजातिप्रसिद्ध लोकवादानुकारः । अत्रातिसौन्दर्यशालिनीमिमामपहाय धनलिप्सया प्रस्थितो रसानभिज्ञत्वाद्गोप्राय एव । तस्य निवर्त कस्तु धनस्य जेता धनेनाकृष्टस्य तद्विमुखीकरणेन प्रत्याक्षेपकत्वादित्यर्थान्तरमपि गर्भीकृतम् ॥ १५८ ॥
किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति का वृत्तान्त पूछा, इस पर कोई व्यक्ति पास में खड़े व्यक्ति को देखकर इस आशय से कि 'यही उसके वृत्तान्त को जानता है' इस लोकोकि का प्रयोग करता है कि 'साँप ही साँप के पाँव जानता है'। यहाँ 'वह व्यक्ति तथा यह दोनों धनार्जनादिव्यापार में सहचारी हैं, इस बात के प्रख्यात होने से लोकोक्ति के प्रयोग के प्रयोजन रूप रहस्य अनंगव्यापार ( कामव्यापार ) में भी यह उसका मित्र है, इस प्रकार इस उक्ति के द्वारा रहस्य का उद्घाटन किया गया है। अतः इस लोकोक्ति में दूसरा अर्थ छिपा है । अथवा जैसे निम्ने पद्य में—
कोई सखी विरहिणी नायिका के प्रति नायक को उन्मुख करने के लिए बादल के बहाने नायक से कह रही है - 'मलय पर्वत से आने वाले दक्षिणानिल के समूह चले गये हैं ( नायिका ने वसंत ऋतु विरह में ही बिता दी है ), खिली हुई मल्लिका के सुगंध के भार वाला ग्रीष्म भी समाप्त हो गया है। हे बादल, यदि तुम उत्साह करो, तो उस स्नेह शून्य नायक को इससे मिला सकते हो। शत्रुओं के द्वारा हरी गई गायों को वापस लौटाने समर्थ हो, वही 'धनंजय' (अर्जुन) कहलाता है।
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(यहाँ चतुर्थ चरण में एक ओर अर्जुन के द्वारा राजा विराट की गायों को लौटा लाने की पौराणिक कथा की ओर संकेत किया गया है, दूसरी ओर यह उक्ति आंध्रदेश में प्रसिद्ध लोकोक्ति है | )
धन की इच्छा से विदेश गये नायक की विरहिणी पत्नी की सखी के इस वचन में 'जो गायों को लौटाने में समर्थ हो, वही धनंजय है' इस आंध्रलोकोक्ति का प्रयोग हुआ है । यहाँ यह अभिप्राय है कि अत्यधिक सौन्दर्य शालिनी नायिका को छोड़ कर धन की इच्छा से विदेश गया नायक रसज्ञ न होने के कारण बैल के समान मूर्ख है । उसे वह ला सकता