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________________ कुवलयानन्दः इयं यास्यत्युश्च विपदमधुना पानरचमू लधिष्ठेदं षष्ठाक्षरपरविलोपात् पठ पुनः ।। सर्वमिदं शब्दश्लेषमूलाया वक्रोक्तेरुदाहरणम् | अर्थश्लेषमूलाया वक्रोक्तेर्यथा भिक्षार्थी स क यातः सुतनु ! बलिमखे ताण्डवं काद्य भद्रे ! __ मन्ये वृन्दावनान्ते क नु स मृगशिशुनैव जाने वराहम् । बाले ! कश्चिन्न दृष्टो जरठवृषपतिर्गोप एवास्य वेत्ता लोलासंलाप इत्थं जलनिधिहिमवत्कन्ययोस्त्रायतां नः ।। काका यथा असमालोच्य कोपस्ते नोचितोऽयमितीरिता | नैवोचितोऽयमिति तं ताडयामास मालया। अत्रनवोचितोऽयमिति काकुस्वरविकारेणोचित एवेत्यर्थान्तरकल्पनम् ।।१५६।। ९३ स्वभावोक्त्यलङ्कारः स्वभावोक्तिः स्वभावस्य जात्यादिस्थस्य वर्णनम् । उत्तर देते हुए सीता कहती है 'इस उक्ति के प्रत्येक चरण से छठे अक्षर के पर अक्षर (सप्तम) का लोप कर फिर से पढ़ो'-(इस प्रकार सप्तमाक्षर का लोप करने पर अर्थ होगा-'अब रावण के मुख की ग्लानि होने वाली है, लक्ष्मण के साथ राम युद्ध में खड़े रहेंगे, वानरों की सेना उच्च पद (विजय) को प्राप्त करेगी)। उपयुक्त ये सब उदाहरण शब्दश्लेषमूला वक्रोक्ति के हैं। अर्थ श्लेषमूलावक्रोक्ति का उदाहरण निम्न है:लक्ष्मी आकर पार्वती से पूछती हैं-'वह भिक्षार्थी कहाँ गया ? पार्वती उत्तर देती हैं:-'हे सुतनु वह बलि के यज्ञ में गया है।' 'हे भद्र आज ताण्डव कहाँ होगा ? 'शायद वृन्दावन में होगा।' 'वह मृगशिशु (महादेव के द्वारा हाथ में धारण किया मृग शिशु) कहाँ है ? 'मुझे वराह का पता नहीं है।' 'हे' पाले, उस बूढे बैल का मालिक (अथवा वह बूढा बैल)कहीं नहीं दिखाई दिया।' 'इसे तो ग्वाला ही जान सकता है'-इस प्रकार लचमी तथा पार्वती का लीलासंलाप हमारी रक्षा करे। (यहाँ लघमी शिवपरक उक्ति कहती हैं, पार्वती अर्थश्लेषमय वक्रोक्ति के द्वारा उसे विष्णुपरक बनाकर अर्थान्तर की कल्पना कर लेती हैं)। काकु वक्रोक्ति जैसे, कोइ नायक ईर्ष्यामानाविष्ट नायिका से कहता है-'बिना सोचे समझे तेरा कोप करना ठीक नहीं।' यह कहने पर नायिका काकु के द्वारा उत्तर देती है-'यह भी ठीक नहीं है' तथा उसे माला से पीटती है। इस प्रकार यहाँ यह भी उचित नहीं है। इस काकु स्वर के विकार के द्वारा 'उचित ही है' यह अर्थान्तर कल्पित किया गया है। ९३. स्वभावोक्ति अलंकार १६०-किसी पदार्थ की जाति, गण, क्रिया के अनुसार उसके स्वभाव का वर्णन करने
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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