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________________ २३८ कुवलयानन्दः ___ यद्यप्येषा हिमकरकराद्वैतसौवस्तिकी ते __ कीर्ति दिक्षु स्फुरति तदपि श्रीनृसिंहक्षितीन्द्र ! ॥ ननु चान्यगुणेनान्यत्रगुणोदयानुदयरूपाभ्यामुल्लासावज्ञालंकाराभ्यांतद्गुणातद्गुणयोः को भेदः ? उच्यते,-उल्लासावज्ञालक्षणयोर्गुणशब्दो दोषप्रतिपक्षवाची । अन्यगुणेनान्यत्र गुणोदयतदनुदयौ च न तस्यैव गुणस्य संक्रमणासंक्रमणे, किन्तु सद्गुरूपदेशेन सदसच्छिष्ययोर्ज्ञानोत्पत्त्यनुत्पत्तिवत्तद्गुणजन्यत्वेन संभावितयोर्गुणान्तरयोरुत्पत्त्यनुत्पत्ती । तद्गुणातद्गुणयोः पुनर्गुणशब्दो रूपरसगन्धादिगुणवाची । तत्रान्यदीयगुणग्रहणाग्रहणे च रक्तस्फटिकवस्त्रमालिन्यादिन्यायेनान्यदीयगुणेनैवानुरञ्जनाननुरञ्जने विवक्षिते । तथैव चोदाहरणानि दर्शितानि । यद्यप्यवज्ञालंकृतिरतद्गुणश्च विशेषोक्तिविशेषावेव; 'कार्याजनिर्विशेषोक्तिः सति पुष्कलकारणे' इति तत्सामान्यलक्षणाक्रान्तत्वात् । तथाप्युल्लासतदगुणप्रतिद्वन्द्विना विशेषालंकारेणालंकारान्तरतया परिगणिताविति ध्येयम् ॥१४४॥ तथापि चन्द्रमा की किरणों के अद्वैत की सौवस्तिकी ('स्वस्ति' पूछने वाली, कुशल पूछने वाली) बनकर (चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल बनकर) दिशाओं में भी प्रकाशित हो रही है। (यहाँ राजकीर्ति दिग्गजों के मदमलिन गण्डस्थल तथा अरिरमणियों के नयन. कज्जल से सम्बद्ध होने पर भी उनके गुण का ग्रहण नहीं करती, अतः यहाँ अतद्गुण अलङ्कार है।) ___ तद्गण तथा अतद्गुण का उल्लास एवं अवज्ञा से क्या भेद है, इस संबंध में पूर्वपक्षी प्रश्न करता है:-उल्लास अलङ्कार में एक पदार्थ के गुण से दूसरे पदार्थ का गुणोदय होता है, अवज्ञा में एक पदार्थ के गुण से दूसरे पदार्थ का गुणानुदय होता है, तो ऐसी स्थिति में तद्गुण तथा अतद्गुण का इन अलंकारों से क्या भेद है ? इसी का उत्तर देते हुए सिद्धांतपक्षी बताता है:-उल्लास तथा अवज्ञा अलङ्कारों के लक्षण में जिस गुण शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका अर्थ है 'दोष का विरोधी भाव' । किसी एक वस्तु के गुण का अन्य वस्तु में उदय या अनुदय होना ठीक उसी गुण का संक्रमण या असंक्रमण नहीं है, किन्तु जिस प्रकार सद्गुरु के उपदेश से अच्छे शिष्य में ज्ञानोदय होता है, तथा असत् शिष्य में ज्ञानो. दय नहीं होता, उसी प्रकार एक वस्तु के गुण के कारण किसी एक वस्तु में गुण के उदय की संभावना हो जाती है (जैसा कि उल्लास अलङ्कार में पाया जाता है) जब कि अन्य वस्तु में गुण का उदय नहीं होता (जैसा कि अवज्ञा अलङ्कार में होता है)। इस प्रकार उल्लास तथा अवज्ञा में गुण शब्द दोष का प्रतिपक्षी है । तद्गुण तथाअतद्गुण अलङ्कार में गुण शब्द का प्रयोग रूप, रस, गन्ध आदि गुणों का वाचक है । इन अलङ्कारोंके लक्षण में अन्य वस्तुके गुण के ग्रहण या अग्रहण का तात्पर्य है, अन्य वस्तु के गुण से अनुरंजित होना या न होना, जैसे स्फटिकमणि किसी लाल वस्तु के रंग का ग्रहण कर लेती है, तथा कोई वस्त्र किसी मैले कुचैले वस्त्र की मलिनता को उसके सम्पर्क मात्र से ग्रहण नहीं कर लेता । तद्गुण तथा अतद्गुण के उदाहरण भी इसी तरह के दिये गये हैं। वैसे अवज्ञा तथा अतद्गुण अलङ्कार तो विशेषोक्ति अलङ्कार के ही भेद हैं, क्योंकि विशेषोक्ति का सामान्य लक्षण इनमें घटित होता है:-'यथेष्ट कारण के होने पर भी जहाँ कार्य न हो वहाँ विशेषोक्ति
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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