SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwww यथा अनुगुणालङ्कारः ww ७८ अनुगुणालङ्कारः प्राक्सिद्धस्वगुणोत्कर्षोऽनुगुणः परसंनिधेः । नीलोत्पलानि दधते कटाक्षैरतिनीलताम् ॥ १४५ ॥ २३६ कपिरपि च कापिशायनमदमत्तो वृश्चिकेण संदष्टः । अपि च पिशाचग्रस्तः किं ब्रूमो वैकृतं तस्य ॥ अत्र कपित्वजात्या स्वतः सिद्धस्य वैकृतस्य मद्यसेवादिभिरुत्कर्षः || १४५।। ७९ मीलितालङ्कारः मीलितं यदि सादृश्याद्भेद एव न लक्ष्यते । रसो नालक्षि लाक्षायाश्चरणे सहजारुणे ॥ १४६ ॥ अलङ्कार होता है'। इस प्रकार यद्यपि ये दोनों अलङ्कार विशेषोक्ति में ही अंतर्भावित हो जाते हैं, तथापि उल्लास तथा तद्गुण के विरोधी होने के कारण, किसी विशेष अलङ्कार के विरोधी होने के कारण इन्हें अलग से अलङ्कार माना गया है । टिप्पणी- पण्डितराज जगन्नाथ ने भी उन विद्वानों का मत दिया है, जो इसे विशेषोक्ति में ही अन्तर्भूत मानते है: -- अन्ये तु - 'सति गुणाग्रहण हे तावुत्कृष्टगुणसंनिधाने तद्गुणरूपकार्याभावात्मकोऽयमतद्गुणो विशेषोकेरवान्तरभेदः, नत्वलङ्कारान्तरम् । कार्यकारणभावो नात्र विवक्षितः । किंतु संनिधानेऽपि ग्रहणाभाव इत्येतावन्मात्रम् । अतो विशेषोक्तेस्तद्गुणो भिन्न इति तु न युक्तम् । संनिधानेऽपीत्यपिना विरोधोऽपि विवक्षित इति गम्यते । अन्यथा जीवातोरभावादलङ्कारतैव न स्यात् । स च कार्यकारणभावाविवक्षणे न भवतीति कथमुच्यते न विवक्षित इति' इत्यप्याहुः । ( रसगंगाधर पृ० ६९३ - ९४ ) ७८. अनुगुण अलङ्कार १४५ - जहाँ कोई वस्तु अन्य वस्तु की संनिधि के कारण अपने पूर्वसिद्धि गुण का अधिक उत्कर्ष धारण करे, वहाँ अनुगुण अलङ्कार होता है । जैसे कोई कवि किसी नायिका के कर्णावतंसीकृत नीलकमलों की शोभा का वर्णन करते कह रहा है, उस नायिका के कटाक्षों के कारण नीलकमल और अधिक नीलिमा धारण करते हैं । ( यहाँ नीलकमल कटाक्षों के सम्पर्क से पूर्वसिद्ध नीलिमा को और अधिक धारण करते हैं, अतः उनके गुण का उत्कर्ष विवक्षित है। यहाँ अनुगुण अलङ्कार है । ) जैसे- कोई बन्दर मदिरा के मद में मस्त हो, फिर उसे बिच्छू काट ले और उस पर पिशाच लगा हो, ऐसे बन्दर की बुरी हालत को कैसे कहा जा सकता है । कपि स्वयं चंचल होता है, वह चंचलता मद्यसेवन आदि से और बढ़ जाती है । इस प्रकार यहाँ कपि के गुण का तत्तत् वस्तु के सम्पर्क के कारण उत्कर्ष विवक्षित है। ७९. मीलित अलङ्कार १४६ - जहाँ दो वस्तुएँ इतनी सदृश हों कि उनके परस्पर संश्लिष्ट होने पर सादृश्य के कारण उन का भेद परिलक्षित न हो, वहाँ मीलित अलङ्कार होता है, जैसे उस नायिका के नैसर्गिक अरुणिमा से युक्त चरण में लाक्षारस का पता ही नहीं चलता ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy