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________________ अतद्गुणालङ्कारः २३७ लक्षणे चकारात् पूर्वरूपमिति लक्ष्यवाचकपदानुवृत्तिः । यथा वा,द्वारं खड्गिभिराघृतं बहिरपि प्रस्विन्नगण्डैर्गजै. रन्तः कञ्चुकिभिः स्फुरन्मणिधरैरध्यासिता भूमयः । आक्रान्तं महिषीभिरेव शयनं त्वद्विद्विषां मन्दिरे राजन् ! सैव चिरंतनप्रणयिनी शून्येऽपि राज्यस्थितिः ॥१४३।। ७७ अतद्गुणालङ्कारः संगतान्यगुणानङ्गीकारमाहुरतद्गुणम् । चिरं रागिणि मच्चित्ते निहितोऽपि न रञ्जसि ॥ १४४ ॥ यथा वागण्डाभोगे विहरति मदैः पिच्छिले दिग्गजानां वैरिस्त्रीणां नयनकमलेष्वञ्जनानि प्रमार्टि। दूसरे प्रकार के पूर्वरूपालंकार के लक्षण में चकारोपादान के द्वारा प्रथम पूर्वरूपालंकार के लक्षण से 'पूर्वरूप' इस लक्ष्यवाचक पद की अनुवृत्ति जानना चाहिये । इसी का दूसरा उदाहरण यह है : कोई कवि किसी राजा की वीरता की प्रशंसा करता कह रहा है। हे राजन्, तुम्हारे शत्रुओं के हमलों के शून्य होने पर भी वैसी ही राज्य की मर्यादा दिखाई पड़ती है। उनके दरवाजों पर अब भी खड्गी (खड्गधारी. द्वारपाल, गैंडे पशु) खड़े रहते हैं, उनके बाहर अब भी मदजलसिक्त हाथी झूमते हैं, उनके अन्तःपुर में अब भी कञ्चकी मणिधर (मणियों को धारण करने वाले कञ्जुकी, केंचुली वाले सॉप) मौजूद हैं, अब भी वहाँ की शय्याएँ महिषियों (रानियों, भैंसों) के द्वारा आक्रान्त हैं। (यहाँ श्लेष के द्वारा शत्रुराजाओं के महलों की पूर्वावस्थानुवृत्ति वर्णित की गई है। इसमें अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार भी है, जहाँ शत्रुराजाओं के मन्दिरों की दुर्दशा रूप कार्य, के वर्णन के द्वारा स्तोतव्य राजा की वीरता रूप कारण की संस्तुति व्यजित की गई है।) ७७. अतद्गुण १४४-जहाँ कोई पदार्थ अपने से सम्बद्ध अन्य वस्तु के गुण को ग्रहण न करे, वहाँ, अतद्गुण अलङ्कार होता है, जैसे (कोई नायिका नायक का अनुनय करती कह रही है). तुम बहुत समय से मेरे रागी ( अनुराग से युक्त, ललाई से युक्त) चित्त में रहने पर भी प्रसन्न (अनुरक्त) नहीं होते। (यहाँ रागो चित्त में रहने पर भी रागवान् न होना, सम्बद्ध वस्तु के गुण का अनङ्गी. कार है, अतः यह अतद्गुण का उदाहरण है।) अतद्गुण का अन्य उदाहरण निम्न है :कोई कवि आश्रयदाता राजा की प्रशंसा कर रहा है। टिप्पणी-यह पद्य एकावलीकार विद्यानाथ की रचना है। हे नृसिंहराज, यद्यपि आपकी कीर्ति दिग्गजों के मदजल से पक्किल गण्डस्थल पर विहार करती है तथा शत्रुराजाओं की स्त्रियों के नेत्ररूपी कमलों में काजल को पोछती है,
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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