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________________ प्रहर्षणालङ्कारः २२१ यत्नादुपायसिद्धयर्थात् साक्षाल्लाभः फलस्य च । निध्यञ्जनौषधीमूलं खनता साधितो निधिः ।। १३१ ॥ फलोपायसिद्ध्यर्थाद्यत्नान्मध्ये उपायसिद्धिमनपेक्ष्यापि साक्षात्फलस्यैव प्रहर्षणम् | यथा निध्यञ्जनसिद्ध्यर्थं मूलिकां खनतस्तत्रैव निर्लाभः । यथा वा उच्चित्य प्रथममधःस्थितं मृगाक्षी पुष्पौघं श्रितविटपं ग्रहीतुकामा । आरोढुं पदमदधादशोकयष्टावामूलं पुनरपि तेन पुष्पिताभूत् ॥ अत्र पुष्पग्रहणोपायभूतारोहणासिद्ध्यर्थात्पदनिधानात्तत्रैव पुष्पग्रहणलाभः।। (यत्तु-'चातक......' इति पचं 'वान्छितादधिकार्थस्य संसिद्धिश्च प्रहर्षणम्' इति प्रहर्षणाद् द्वितीयप्रभेदं लक्षयित्वोदाहृतं कुवलयानन्दकृता। तदसत् । वान्छितादधिकार्थस्य संसिद्धिरिति लक्षणेन संसिद्धिपदेन निष्पत्तिमात्रं न वक्तुं युक्तम् । सत्यामपि निष्पत्ती वान्छितुस्तल्लाभकृतसंतोषानातिशये प्रहर्षणशब्दयोगार्थसंगत्या तदलकारस्वायोगात् । किं तु लाभेन कृतः संतोषातिशयः। एवं च प्रकृते चातकस्य त्रिचतुरकणमात्रार्थितया जलदकर्तृकजलकरणकविधपूरेण न हर्षाधिक्याभावात् प्रहर्षणं कथंकारं पदमाधत्ताम् । वामिछता. दधिकप्रदत्वेन दातुरुत्कर्षो भवस्तु न वार्यते। अत एव हन्त हन्तेत्यादिनार्थान्तरन्यासेन स एव पोष्यते । लोभादराटिकानामित्यस्मदीये तूदाहरणे वान्छितुर्वान्छितार्थादधिकवस्तु. लाभेन संतोषाधिक्यात्तद्युक्तम् । ( रसगङ्गाधर पृ० ६८१-८२ ) १३१-जहाँ किसी विशेष वस्तु को प्राप्त करने के उपाय की सिद्धि के लिए किये गये पत्न से साक्षात् उसी वस्तु (फल) का लाभ हो जाय, वहाँ प्रहर्षण का तीसरा भेद होता है। जैसे कोई व्यक्ति निधि (खजाना) को देखने के लिए किसी अञ्जन की औषधि की जड़ को खोद रहा हो और उसे खोदते समय ही उसे साक्षात् निधि (खजाना) मिल जाय । (उस मनुष्य को गड़े हुए धन को देखने के अञ्जन की औषधि की जड़ खोदते हुए ही निधि मिल गई)। __ फल प्राप्ति के उपाय की सिद्धि के लिए किये गये यत्न से कार्य के बीच में ही उपाय की सिद्धि के विना ही साक्षात्फल की प्राप्ति हो जाय, वह भी प्रहर्षण का एक भेद है। जैसे निध्यान की प्राप्ति के लिए औषधि की जड़ को खोदते हुए व्यक्ति को वहीं निधि की प्राप्ति हो जाय । अथवा जैसे कोई नायिका अशोक के फूल चुनने आई है। हिरन के समान नेत्र वाली नायिका ने अशोक के नीचे लटकते फूलों को पहले चुन लिया है, तदनन्तर वह पेड़ के ऊपरी भाग में खिले फूलों के समूह को लेने की इच्छा से पेड़ के ऊपर चढ़ने क लिए ज्यों ही अशोक के तने पर पैर रखती है, क्यों ही उसके पैरों के द्वारा आहत होकर अशोक की लता फिर से फूलों से लद जाती है। (यहाँ कवि ने 'पादाघातादशोको विकसति बकुलः सीधुगण्डूषसेकात्' वाली कविसमयोक्ति का उपयोग किया है।) यहाँ नायिका पुष्पग्रहण के लिए उसके उपाय-पेड़ पर चढ़ने का आश्रय लेने जा रही है, इस उपाय की सिद्धि के लिए अशोकयष्टि पर पैर रखते ही वहीं फूल खिल
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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