SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० कुवलयानन्दः wwwmm अत्र राधामाधवयोः परस्परमुत्कण्ठितत्वं प्रसिद्धतरम् । अग्रे च ग्रन्थकारेण निबद्धमित्यत्रोदाहरणे लक्षणानुगतिः ॥ १२६ ॥ वाञ्छितादधिकार्थस्य संसिद्धिश्व प्रहर्षणम् । दीपमुद्योजयेद्यावत्तावदभ्युदितो रविः ॥ १३० ॥ स्पष्टम् | यथा वा चातक स्त्रिचतुरान्पयः कणान् याचते जलधरं पिपासया । सोsपि पूरयति विश्वमम्भसा हन्त हन्त महतामुदारता ॥ १३० ॥ - यहाँ राधा तथा माधव की एक दूसरे से एकान्त में मिलने की उत्कण्ठा प्रसिद्ध है ही तथा कवि जयदेव ने भी गीतगोविन्द नामक काव्य में- जिसका यह मंगलाचरण हैउसे आगे निबद्ध किया है । यहाँ नन्द के आदेश के कारण राधा-माधव की यह उत्कण्ठा बिना किसी यत्र विशेष के ही पूर्ण हो जाती है, अतः यहाँ प्रहर्षण अलंकार का लक्षण घटित हो जाता है । १३०- ( प्रहर्षण का दूसरा भेद ) जहाँ अभीप्सित वस्तु से अधिक वस्तु की प्राप्ति हो, वहाँ भी प्रहर्षण होता है। यह प्रहर्षण का दूसरा भेद है। जैसे, जब तक वह दीपक जलाये, तब तक ही सूर्य उदित हो गया । यहाँ दीपक का प्रकाश अभीप्सित वस्तु है, सूर्य का प्रकाशित होना उससे भी अधिक वस्तु की संसिद्धि है, अतः यह दूसरा प्रहर्षण है। कारिकार्थ स्पष्ट है । इसी का दूसरा उदाहरण यह है : चातक पक्षी व्यास के कारण मेघ से केवल तीन-चार बूँद ही पानी माँगता है । मेघ बदले में समस्त संसार को पानी से भर देता है। बड़े हर्ष की बात है, महान् व्यक्ति बड़े उदार होते हैं। यहाँ चातक पक्षी केवल तीन चार कण की ही इच्छा करता है, किन्तु मेघ अभीप्सित वस्तु से अधिक वितरित करता है, अतः यहाँ प्रहर्षण नामक अलङ्कार है । टिप्पणी- पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्पयदीक्षित के इस उदाहरण को द्वितीय प्रहर्षण का उदाहरण नहीं माना है । वे बताते हैं कि यह उदाहरण दुष्ट है। क्योंकि प्रहर्षण के लक्षण 'वान्छित वस्तु से अधिक वस्तु की संसिद्धि' में संसिद्धि से तात्पर्य केवल निष्पत्तिमात्र नहीं है । ईप्सित से अधिक वस्तु की निष्पत्ति होने पर भी जब तक इच्छा करने वाले व्यक्ति को उस अधिक वस्तु के लाभ का सन्तोषाधिक्य न हो तब तक 'प्रहर्षण' शब्द का अर्थ संगत नहीं हो सकेगा, जो प्रहर्षण अलंकार का वास्तविक रहस्य है । ऐसी स्थिति में, चातक को केवल तीन चार बूँद पानी ही अभीष्ट है, उससे अधिक पानी मिलने पर जब तक चातक का हर्षाधिक्य न बताया जाय, तब तक प्रहर्षण अलंकार कैसे होगा ? हाँ, अधिक दान देने के कारण दाता की उत्कर्षता अवश्य प्रतीत होती है तथा 'हन्त हन्त महतामुदारता' वाला अर्थान्तरन्यास भी उसी की पुष्टि करता है । अतः यहीँ प्रहर्षण का लक्षण घटित नहीं होता। इसका उदाहरण पण्डितसज ने निम्न पद्म दिया है : लोभाद्वराटिकानां विक्रेतुं तक्रमविरतमटन्स्या | लब्धो गोपकिशोर्या मध्येरथ्यं महेद्रनीलमणिः ॥ -:
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy