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________________ प्रहर्षणालङ्कारः ६७ प्रहर्षणालङ्कारः उत्कण्ठितार्थसंसिद्धिर्विना यत्नं प्रहर्षणम् । तामेव ध्यायते तस्मै निसृष्टा सैव दूतिका ॥ १२९ ॥ उत्कण्ठा = इच्छाविशेषः । सर्वेन्द्रियसुखास्वादो यत्रास्तीत्यभिमन्यते । तत्प्राप्तीच्छां ससंकल्पामुत्कण्ठां कवयो विदुः ॥' इत्युक्तलक्षणात्तद्विषयस्यार्थस्य तदुपायसंपादनयनं विना सिद्धिः प्रहर्षणम् । उदाहरणं स्पष्टम् | यथा वा ( गीतगोविन्दे १1१ ) - २१६ मेघैर्मेदुरमम्बरं बनभुवः श्यामास्तमालद्रुमै नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ! गृहं प्रापय ।, इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्व कुअनुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः ॥ है, अतः वहाँ निदर्शना ही है । यहाँ सादृश्य पर्यवसान तो पाया जाता है, पर प्रकृत वृत्तान्त का उपन्यास नहीं हुआ है, अतः निदर्शना नहीं मानी जा सकती । वहाँ प्रकृत वृत्तान्त वाच्य रहता है, यहाँ प्रकृत वृत्तान्त व्यंग्य होता है, अतः व्यंग्य होने के कारण इस प्रकार की सरणि में अधिक चमत्कार पाया जाता है । इसलिए ललित को निदर्शना से भिन्न मानना उचित ही है । ( न चात्र वारणेन्द्रलीलामितिवत्पदार्थनिदर्शना युक्तेति वाच्यम् । तत्र पूर्वार्धन प्रकृतवृत्तान्तोपादानेन, सादृश्यपर्यवसानरूप निदर्शनासत्वेऽप्यत्र तदनुपादानेन । तद्वयङ्गयताप्रयुक्तविच्छित्तिविशेषवत्त्वेन ललितालंकारस्यैवोचितत्वात् । ) ( चन्द्रिका पृ० १५० ) ६७. प्रहर्षण अलंकार १२९ - जहाँ किसी यत्तविशेष के विना ही ईप्सित वस्तु की सिद्धि हो जाय, वहाँ प्रहर्षण नामक अलंकार होता है । जैसे, कोई नायक किसी का ध्यान ही कर रहा था कि उसके लिए वही दूतिका भेज दी गई। टिप्पणी- साक्षात्तदुद्देश्य कय नमन्तरेणाप्यभीष्टार्थलाभः प्रहर्षणम् । (रसगंगाधर पृ० ६८०) उत्कण्ठा का अर्थ है इच्छाविशेष । उत्कण्ठा का लक्षण यों है :- 'जिस वस्तु में समस्त इन्द्रियों के सुख का आस्वाद समझा जाता है, उस वस्तु की प्राप्ति के लिए की गई संकल्प पूर्वक तीव्र इच्छा को कविगण उत्कण्ठा कहते हैं।' इस लक्षण के अनुसार इस प्रकार की वस्तु की प्राप्ति के उपाय के बिना ही जहाँ सिद्धि हो, उस स्थान पर काव्य में प्रहर्षण अलंकार होता है । कारिकार्ध का उदाहरण स्पष्ट ही है । अथवा जैसे 'हे राधे, आकाश घने बादलों से घिरा है, समस्त वनभूमि तमाल के निबिड वृक्षों से काली हो रही हैं और रात का समय है । तुम तो जानती ही हो, यह कृष्ण बढ़ाँ डरपोक है, इसे इस रात में जंगल में होकर घर जाते डर लगेगा। तुम्हीं इसे क्यों नहीं पहुँचा देती ?' नन्द की इस आज्ञा को सुन कर घर की ओर प्रस्थित राधा-माधव के द्वारा मार्ग मैं यमुना तट के उपवन तथा लताकुल में की हुई एकान्त क्रीडाएँ सर्वोत्कृष्ट हैं ।"
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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