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यथा वा ( रघु. १1१ ) -
कुवलयानन्दः
व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः ।। तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥
अत्रापि निदर्शनाभ्रान्तिर्न कार्यो । 'अल्पविषयया मत्या सूर्यवंशं वर्णयितुमिच्छुरहम्' इति प्रस्तुत वृत्तान्तानुपन्यासात्तत्प्रतिबिम्बभूतस्य 'उडुपेन सागरं तितीर्षुरस्मि' इत्यप्रस्तुत वृत्तान्तस्य वर्णनेनादौ विषमालङ्कारविन्यसनेन च केवलं तत्र तात्पर्यस्य गम्यमानत्वात् ।
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यथा वा ( नैषध. ८/२५ ) -
अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुक्तस्य दशां वनस्य । त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्राव्यापि नानेन जनेन संज्ञा ॥
अत्र'कतमो देशस्त्वया परित्यक्तः ?' इति प्रस्तुतार्थमनुपन्यस्य 'वसन्तमुक्तस्य वनस्य दशामनायि' इति प्रतिबिम्बभूतार्थमात्रोपन्यासाल्ललितालङ्कारः ।। १२८ ॥
यहाँ भी नवीन अलंकार की कल्पना करने के लिए कारण है । अतः यह ललित अलंकार सभी अलंकारों से विलक्षण है ।
इन तीनों उदाहरणों का अर्थ अतिशयोक्ति तथा प्रस्तुतांकुर अलंकार के प्रसंग में देखें ।
ofen अलंकार की प्रतिष्ठापना करने के बाद इसका एक उदाहरण देते हैं, जहाँ कुछ विद्वान् भ्रांति से निदर्शना अलंकार मानते हैं ।
कहाँ तो सूर्य से उत्पन्न होने वाला वंश, कहाँ मेरी तुच्छ बुद्धि ? मैं मोह के कारण दुस्तर समुद्र को एक छोटी सी डोंगी से पार करने की इच्छा कर रहा हूँ ।'
इस पद्य में निदर्शना नहीं मानना चाहिए । 'मैं तुच्छ बुद्धि के द्वारा सूर्यवंश का वर्णन करने की इच्छावाला हूँ' यह प्रस्तुत वृत्तान्त है । इसके उपन्यास के द्वारा इसके प्रतिबिंबखूप अप्रस्तुत वृत्तान्त - मैं डोंगी से सागर पार करने की इच्छा वाला हूँ-के वर्णन के द्वारा तथा पद्य के पूर्वार्ध में पहले विषम अलंकार का प्रयोग करने के कारण कवि का अभिप्राय केवल तुच्छबुद्धि के द्वारा सूर्यवंश के वर्णन की इच्छा वाले प्रस्तुत तक ही है । अतः यहाँ भी प्रस्तुत के प्रसंग में अप्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन करने के कारण ललित अलंकार हो है । अथवा जैसे
दमयन्ती नल से पूछ रही है ::- यह बताओ, वह कौन सा दश है, जिसे तुमने वसन्त के द्वारा छोड़े गये वन की दशा को पहुँचा दिया है ? तुम्हारे लिए प्रयुक्त संकेत रूप संज्ञा ( नाम ) क्या इस व्यक्ति (मेरे) द्वारा सुनने योग्य नहीं है ?'
यहाँ 'तुमने कौन सा देश छोड़ा है' (तुम कहाँ से आ रहे हो ) इस प्रस्तुत अर्थ का उपन्यास न कर 'वसन्त के द्वारा छोड़े गये उपवन की दशा को पहुँचाया गया है' इस प्रतिबिंबभूत अप्रस्तुत वृत्तान्त का उपन्यास किया गया है, अतः यहाँ ललित अलंकार है ।
टिप्पणी -- चन्द्रिकाकार वैद्यनाथ ने इस पद्य के प्रसंग में निदर्शना की शंका उठाकर उसका समाधान किया है । वे कहते हैं कि यहाँ माघ के प्रसिद्ध पद्य 'उदयति विततोर्ध्वरश्मिरज्जावहिमंकुचौ हिमधाम्नि याति चास्तं । वहति गिरिरयं विलम्बिघण्टाद्वयपरिवारितवारणेंद्र लीलाम्' की सरह पदार्थ - निदर्शना नहीं है । वहाँ पर पद्म के पूर्वार्ध में प्रकृत वृत्तान्त का उपन्यास हो चुका