SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथा वा अर्थापत्त्यलङ्कारः m १६३ मधुव्रतौघः कुपितः स्वकीयमधुप्रपापद्मनिमीलनेन । त्रिम्बं समाक्रम्य बलात्सुधांशोः कलकुमके धुनमातनोति ॥ ११६ ॥ ५९ अर्थापत्यलङ्कारः कैमुत्येनार्थसंसिद्धिः काव्यार्थापत्तिरिष्यते । स जितस्त्वन्मुखेनेन्दुः, का वार्ता सरसीरुहाम् १ ॥ १२० ॥ कालङ्कारस्य विविक्तो विषय इति बोध्यम् । अत एव मम्मटभट्टैरपि - श्वं विनिर्जितमनोभवरूपः सा च सुन्दर भवस्यनुरक्ता । पञ्चभिर्युगपदेव शरैस्तां तापयत्यनुशयादिव कामः ||' ( इत्युदाहृतं ) । एवं च हेतूत्प्रेक्षयैव गतार्थश्वान्नेदमलङ्कारान्तरं भवितुमईतीति कस्यचिद्वचनमनादेयम् ॥ ( अलंकार चन्द्रिका पृ० १३५ ) इस प्रकार जहाँ बलवान् प्रतिपक्ष के प्रति बिगाड़ करने में असमर्थ व्यक्ति के द्वारा उस शत्रु को स्वयं को ही पीडित किया जाय, वहाँ साक्षात् शत्रु के प्रति वर्णित पराक्रम में भी इसलिए प्रत्यनीक अलङ्कार होगा कि किसी शत्रु के सम्बन्धी को पीडित करने की अपेक्षा शत्रु को पीडित करना विशेष महत्त्वपूर्ण है ( क्योंकि कैमुतिकन्याय से इसकी पुष्टि होती है ) । अथवा जैसे शाम के समय भौरों का समूह अपनी मधु की प्रपारूप कमलश्रेणि के मुरझाने के कारण क्रुद्ध होकर, अपने शत्रुभूत चन्द्रमा के विम्ब पर आक्रमण कर उसके मध्यभाग में कलङ्क को उत्पन्न कर रहा है । यहाँ भौरों का समूह अपना अपकार करने वाले ( कमलों को कुम्हला देने वाले ) शत्रु चन्द्रमा से कुपित होकर उसका अपकार करना चाहता है । यद्यपि वह चन्द्रमा को पीडित करने में अशक्त है तथापि किसी तरह उसके मध्यभाग में कलंक को उत्पन्न कर उसे बाधा पहुँचा ही रहा है । टिप्पणी- यह प्रत्यनीक का प्रकारान्तर अप्पयदीक्षित ने ही माना है । रुय्यक, मम्मट तथा पण्डितराज केवल प्रतिपक्षिसम्बन्धिबाधन या प्रतिपक्षिसम्बन्धितिरस्कृति में ही प्रत्यनीक मानते हैं, प्रतिपक्षी के स्वयं के बाधन या तिरस्कार में नहीं । ५९. अर्थापत्ति अलङ्कार १२० – जहाँ कैमुत्यन्याय के द्वारा किसी अर्थ की सिद्धि हो, वहाँ अर्थापत्ति या काव्यार्थापत्ति अलङ्कार होता है । जैसे तुम्हारे सुख ने उस चन्द्रमा तक को जीत लिया, तो कमलों की तो बात ही क्या ? 1 टिप्पणी—पण्डितराज जगन्नाथ ने अर्थापत्ति के लक्षण में 'कैमुत्यन्याय' न मानकर 'तुल्यन्याय' की स्थिति मानी है। तभी तो बे अर्थापत्ति की परिभाषा यह देते हैं :- केनचिदर्थेन तुल्यन्यायत्वादर्थान्तरस्यापत्तिरर्थापत्तिः । ( रसगंगाधर पृ० ६५३ ) । अर्थापत्ति के प्रकरण में वे अपयदीक्षित की परिभाषा का खण्डन करते हैं तथा इस बात की दलील देते हैं कि अर्थापत्ति. न केवल अधिकार्थविषय के द्वारा न्यूनार्थविषय वाली ( कैमुतिकन्याय वाली ) ही होती है, अपितु न्यूनाविषय के द्वारा अविकार्थविषय की भी होती है । अप्पयदीक्षित का लक्षण इस प्रकार के उदाहरणों में घटित न हो सकेगा । यत्तु - 'कैमुत्येनार्थसंसिद्धिः काव्यार्थापत्तिरिष्यते' इति कुवलयानन्दकृता अस्या लक्षणं निर्मितं, तदसत् । कैमुतिकन्यायस्य न्यूनार्थविपयत्वेनाधिकार्थापत्तावव्याप्तेः ( ही पृ० ६६६ ) । कुवलयानन्द के टाकाकार वैद्यनाथ ने अलंकारचन्द्रिका में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy