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________________ १६२ कुवलयानन्दः यथा वा मम रूपकीर्तिमहरद्भुवि यस्तदनु प्रविष्टहृदयेयमिति | त्वयि मत्सरादिव निरस्तदयः सुतरां क्षिणोति खलु तां मदनः ॥ एवं बलवति प्रतिपक्षे प्रतिकर्तुमशक्तस्य तदीयबाधनं प्रत्यनीकमिति स्थिते साक्षात्प्रतिपक्षे पराक्रमः प्रत्यनीकमिति कैमुतिकन्यायेन फलति । विभक्ति' इत्यादि पाणिनिसूत्र से यथार्थ पदार्थों के सादृश्य के लिये जाने पर 'सादृश्य' शब्द के ग्रहण से गुणीभूत सादृश्य में भी अव्ययीभाव हो जाता है। इसलिए 'सदृशः सख्या ससखि' जैसे उदाहरणों में अव्ययीभाव समास होता है। इस संबंध में देखिये 'रसगंगाधर' पृ. ६६५) अथवा जैसे यह नायिका उसी व्यक्ति के प्रति अपने हृदय से अनुरक्त है जिसने इस पृथ्वी पर मेरे रूप की कीर्ति को हर लिया है-मानो इस मत्सर (ईर्षा ) के कारण कामदेव निर्दय हो कर उस नायिका को अत्यधिक क्षीण बना रहा है। यहाँ कामदेव अपने प्रतिपक्षभूत नायक को बलवान् पाकर उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता, फलतः वह अपने बैर का बदला चुकाने के लिये नायक की पक्षभूत नायिका को पीड़ा देकर उसे पराभूत कर रहा है । अतः यहाँ प्रत्यनीक अलङ्कार है। टिप्पणी-इस सम्बन्ध में रसगंगाधरकार पण्डितराज जगन्नाथ का मत जानना आवश्यक है । उनके मत से कुछ आलंकारिक प्रत्यनीक अलंकार को अलग से अलंकार नहीं मानते, वे इसे हेतूत्प्रेक्षा का ही रूप मानते हैं। हेतूत्प्रेक्षयैव गतार्थत्वान्नेदमलङ्कारान्तरं भवितु. मर्हति ( रसगंगाधर पृ० ६६६ )। किन्तु पण्डितराज इसे अलग अलंकार मानते हैं। इतना होने पर भी पण्डितराज का यह मत है कि जहाँ हेतूत्प्रेक्षा 'इवादि' शब्द के बिना गम्यमान हो, वहीं प्रत्यनीक माना जायगा। भाव यह है, हेतूत्प्रेक्षा में दो अंश होते हैं-एक हेत्वंश, दूसरा उत्प्रेक्षांश, जहाँ दोनों अंश आर्थ हों, अथवा केवल हेत्वंश शाब्द हो ( किन्तु उत्प्रेक्षांश आर्थ हो ), वहीं प्रत्यनीक अलंकार माना जायगा । जहाँ उत्प्रेक्षांश तथा हेत्वंश दोनों शाब्द हों, वहाँ प्रत्यनीक नहीं माना जा सकता, क्योंकि वहाँ स्पष्टतः उत्प्रेक्षा ही होगी। इसी सम्बन्ध में रसगंगाधरकार ने कुवलयानन्दकार के इस उदाहरण को इसलिए प्रत्यनीक का उदाहरण नहीं माना है कि यहाँ हेत्वंश (मम रूप"प्रविष्टहृदयेयमिति ) तथा उत्प्रेक्षांश (मत्सरादिव) दोनों ही शाब्द है । वे कहते हैं: मम रूपकीर्ति' इति कुवलयानन्दकारेणोदाहृते तु पद्ये हेस्वंश उत्प्रेक्षांशश्वेत्युभयमपि शाब्दमिति कथकारमस्यालङ्कारोदाहरणतां नीतमिदमायुष्मतेति न विद्मः ।' (रसगंगाधर पृ० ६६७) पण्डितराज जगन्नाथ के इस आक्षेप का उत्तर वैद्यनाथ ने अपनी कुवलयानन्दटीका अलंकारचन्द्रिका में दिया है। वे कहते हैं कि 'मत्सरादिव' इस अंश में उत्प्रेक्षा शाब्दी है, किन्तु उसके कारण प्रतिपक्षी के सम्बन्धी ( नायिका ) का ( कामदेव के द्वारा ) पांडित करना, इस अंश में तो स्पष्टतः प्रत्यनीक अलंकार है ही। वे इस सम्बन्ध में मम्मटाचार्य के द्वारा प्रत्यनीक के प्रकरण में उहाहृत पद्य को देते हैं, जहाँ भी उत्प्रेक्षांश ( अनुशयादिव ) शाब्द ही पाया जाता है। _ 'अत्र मत्सरादिव' इति हेत्वंशे उत्प्रेहासत्त्वेऽपि तद्धेतुकप्रतिपक्षसम्बन्धिबाधनं प्रत्यनी
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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