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________________ प्रत्यनीकालङ्कारः दैवादापतता त्वन्धकारेण तत्सौकर्यमानं कृतमिति | एवं द्वितीयोदाहरणेऽपि योज्यम् ।। ११८॥ ५८ प्रत्यनीकालङ्कारः प्रत्यनीकं बलवतः शत्रोः पक्षे पराक्रमः । जैत्रनेत्रानुगौ कर्णावुत्पलाभ्यामधःकृतौ ॥ ११९ ॥ करता' । पर उत्कण्ठा के समय ही दैवयोग से सूर्य अस्त हो गया और इस प्रकार दैवात् अंधकार के आगमन के कारण नायिका के प्रियाभिसरण का कार्य और सरल हो गया। ठीक इसी तरह दूसरे उदाहरण में समझा जा सकता है। (दूसरे उदाहरण में पैरों पर गिरना ही नायिका के मान को हटाने के लिए काफी था, पर इसी दीच अकस्मात् मेघगर्जन हुआ, जिससे नायिका में कामोद्दीपन और जल्दी तथा अधिक सरलता से हो गया और नायक के प्रति उसका क्रोध सुगमता से हट गया।) टिप्पणी-समाधि का अन्य उदाहरण यह दिया जा सकता है : कथय कथमिवाशा जायतां जीविते मे मलयभुजगवान्ता वान्ति वाताः कृतान्ताः। अयमपि बत गुअत्यालि माकन्दमौली । मनसिजमहिमानं मन्यमानो मिलिन्दः ।। ( रसगंगाधर ) यहाँ विरहिणी के जीवित की आशा छोड़ देने रूप कार्य का कारण मलय पवन हैं ही, किंतु अकस्मात् प्राप्त आम के पेड़ पर कामदेव की महिमा की घोषणा करता मधुपगुअन उस जीविता. शात्याग के कार्य को और सुकर बना देता है। ५८. प्रत्यनीक अलंकार ११९-जहाँ बलवान् शत्रु को पराजित करने में असमर्थ कोई पदार्थ उस शत्रुपक्ष के किसी अन्य पदार्थ को पराजित करता वर्णित किया जाय, वहाँ प्रत्यनीक अलंकार होता है । जैसे, (किसी नायिका ने अपने कानों में कमलों को अवतंसित कर रखा है, उसकी प्रशंसा करते कवि कहता है) इन कमलों ने अपने शत्रु ( अपने आपको पराजित करने वाले) नेत्रों के अनुगामी कानों को दबा दिया है। ___ यहाँ कमल शोभा में नेत्रों के द्वारा पराजित कर दिये गये हैं, कमल इस पराजय का बदला नेत्रों से नहीं ले सकते, क्योंकि नेत्र विशेष बलवान् (सुन्दर) हैं, अतः नेत्रों के साथी ( क्योंकि नायिका के नेत्र कर्णान्तायत हैं) कानों को पराजित कर रहे हैं। ('प्रत्यनीकं' इस शब्द में अव्ययीभाव समास है। इसका विग्रह होता है-अनीकेन सन्येन सदृशं इति प्रत्यनीकम् । अर्थात् जिस प्रकार सेना (अनीक) प्रतिपक्ष (शत्रु) का तिरस्कार करती है. ठीक इसी तरह इस अलंकार में भी साक्षात् प्रतिपक्ष (शत्र) का तिरस्कार करने में असमर्थ होने के कारण प्रतिपक्ष के साथी किसी मित्रादि का तिरस्कार होता है। यहाँ एक शंका उठ सकती है कि 'अनीकेन सदृशं' इस व्युत्पत्ति में अव्ययीभाव कैसे होगा ? क्योंकि 'सदृशं' कहने पर तो सादृश्यवाले पदार्थ की प्रधानता हो जायेगी, केवल सादृश्य की नहीं, सादृश्य तो वहाँ गुणीभूत होगा। इस शंका का उत्तर यों दिया जा सकता है कि गुणीभूत सादृश्य में भी अव्ययीभाव समास होता है । अर्थात् 'अव्ययं
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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