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________________ १६० कुवलयानन्दः ५७ समाध्यलंकारः समाधिः कार्यसौकर्य कारणान्तरसंनिधेः। उत्कण्ठिता च तरुणी जगामास्तं च भानुमान् ॥ ११८ ॥ यथा वा ( काव्या० २।२९९), मानमस्या निराकतुं पादयोर्मे पतिष्यतः। उपकाराय दिष्टयैतदुदीर्ण घमगर्जितम् ।। केनचिदारिप्सितस्य कार्यस्य कारणान्तरसन्निधानाद्यत्सीकय तत्सम्यगा. धानात् समाधिः । द्वितीयसमुच्चयप्रतिद्वन्द्वी अयं समाधिः । तत्राहि बहूनां प्रत्येक समर्थानां खलेकपोतकन्यायेन युगपत्कार्यसाधनत्वेनावतारः । अत्र त्वेकेन कार्ये समारिप्सितेऽन्यस्य काकतालीयन्यायेनापतितस्य तत्सौकर्याधायकत्वमात्रम् । अत्रोदाहरणम्- उत्कण्ठितेति। उत्कण्ठैव प्रियाभिसरणे पुष्कलं कारणं नान्धकारागमनमपेक्षते । 'अत्यारूढो हि नारीणामकालज्ञो मनोभवः' इति न्यायात् । कर लिया जाता है, उसके बाद निद्रादि क्रियाओं के साथ उसका अन्वय होता है । इस लिए एक कर्ता का अनेक वाक्यों के साथ अन्वय होने के कारण दीपक की भाँति यह कारक दीपक प्रथम प्रकार के समुच्चय अलंकार का प्रतिद्वन्द्वी (विपरीत) है। ५.७. समाधि अलंकार ११८-जहाँ कार्य सिद्धि के अनुकूल एक हेतु के होने पर अन्य (आकस्मिक) हेतु के द्वारा उस कार्य की सिद्धि में शीव्रता या सुगमता हो, वहाँ समाधि अलंकार होता है । जैसे, (इधर) नायिका (अभिसरण के लिए) उत्कंठित हो रही थी और (उधर ) सूर्य अस्त हो गया। ___ यहाँ नायिका के अभिसरण के लिए सूर्यास्तरूप आकस्मिक हेत्वन्तर की उक्ति में समाधि है । अथवा जैसे जब मैं उस कुपित नायिका के मान को दूर करने के लिए उसके चरणों पर गिर रहा था, उसी समय मेरे उपकार के लिए बादलों ने गरजना आरम्भ कर दिया, यह अच्छा ही हुआ। किसी व्यक्ति के द्वारा किसी कार्य को आरम्भ करने की इच्छा करने पर जब किसी अन्य कारण की स्थिति के कारण उस कार्य के करने में सुगमता हो जाय, वहाँ समाधि अलंकार होता है। यह समाधि अलंकार समुच्चय के द्वितीय भेद (खलेकपोतिकान्यायवाले समुच्चय) का विरोधी है । वहाँ उन अनेक कारणों का, जिनमें से प्रत्येक उक्त कार्य को करने में सशक्त होते हैं, खलेकपोतकन्याय से एक साथ कार्य के साधक रूप में वर्णन होता है। यहाँ किसी एक कार्य के किसी हेतु विशिष्ट से आरंभ करने पर अन्य हेतु काकतालीयन्याय से अकस्मात् उपस्थित हो कर उस कार्य को केवल सुकर बना देता है । इस अलंकार का उदाहरण-उत्कण्ठिता आदि कारिकाध है । प्रियाभिसरण के लिए उत्कण्ठा का होना ही पर्याप्त कारण है, उसके होने पर अन्धकार के आने की प्रतीक्षा नहीं होती। क्योंकि जैसा कहा जाता है-'स्त्रियों में कामदेव प्रवृत्त होने पर समय का विचार नहीं
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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