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________________ १६४ कुवलयानन्दः Amercasmaaaaamanamammiamamaraaraamaamam ____ अंत्र स इत्यनेन पद्मानि येन जितानि इति विवक्षितम्, तथा च सोऽपि येन जितस्तेन पद्मानि जितानीति किमु वक्तव्यमिति दण्डापूपिकान्यायेन पद्ममयरूपस्यार्थस्य संसिद्धिः काव्यार्थापत्तिः । तान्त्रिकाभिमतार्थापत्तिव्यावतनाय कारयेति विशेषणम् । यथा वा अधरोऽयमधीराक्ष्या बन्धुजीवप्रभाहरः । अन्यजीवप्रभां हन्त हरतीति किमद्भुतम् ? । स्वकीयं हृदयं भित्त्वा निर्गतौ यौ पयोधरौ । हृदयस्यान्यदीयस्य भेदने का कृपा तयोः ? ।। १२०॥ पण्डितराज का मत देकर उसका खण्डन किया है। वैसे वैद्यनाथ पण्डितराज का नाम न देकर'इति केनचिदुक्तं' कहते हैं। वैद्यनाथ ने उत्तर में उपयुद्धत पण्डितराज के अापत्तिलक्षण को ही दुष्ट माना है क्योंकि वह लक्षण' का वार्ता सरसीरुहां' वाले कैमुत्यन्याय वाले अर्थापत्ति के उदाहरण में घटित नहीं होता। कैमुतिकन्याय में न्यूनार्थविषय होता है, वहाँ तुल्यन्याय तो पाया नहीं जाता, अतः तुल्यन्याय के अभाव के कारण उसकी प्रतीति न हो सकेगी। शायद आप यह दलील दें कि अलङ्कार तो चमत्कृतिजनक होता है, अतः कोरा कैमुतिकन्याय होना अलंकार नहीं है, तो यह दलील ठीक नहीं है, क्योंकि कैमुतिकन्याय में तो लोकव्यवहार में भो चमत्कारित्वानुभव होता है, अतः वह न्याय स्वतः ही अलंकार है। तत्रेदं वक्तव्यम्-केनचिदर्थेन तुल्य. न्यायस्वादर्थान्तरस्यापत्तिरपत्तिरिति तदुक्तलक्षणमयुक्तम् । 'का वार्ता सरसीरुहां' इत्यादिकमुत्यन्यायविषयार्थापत्तावव्याप्तः। कैमुतिकन्यायस्य न्यूनार्थविषयत्वेन तुल्य. न्यायस्वाभावादापादनप्रतीतेश्चेति । न चान कैमुत्यन्यायतामात्रं न त्वलङ्कारमिति युक्तम्, ....."लोकव्यवहारेपि कैमुत्यन्यायस्य चमत्कारित्वानुभवेन तेनैव न्यायेन तस्यालङ्कारता. सिदेश्च । ( पृ० १३६ ) __ यहाँ चन्द्रमा के साथ युक्त 'सः' पद के द्वारा इस बात की व्यञ्जना विवक्षित है कि जिस चन्द्रमा ने कमलों को जीत लिया है। नायिका के मुख ने उस चन्द्रमा तक को जीत लिया है, अतः उसने कमलों को भी जीत लिया, इस बात के कहने की तो आवश्यकता ही क्या है । इस प्रकार दण्डापूपिकान्याय से मुख ने कमलों को भी जीत लिया है इस अर्थ की सिद्धि हो जाती है, अतः अर्थापत्ति अलङ्कार है। इस अलङ्कार के साथ काव्यशब्द जोड़कर इसे काव्यार्थापत्ति इसलिए कहा गया है कि मीमांसकों के अर्थापत्ति प्रमाण (पीनो देवदत्तो दिवा न भुंक्ते,अर्थात् रात्रौ भुंक्ते) की व्यावृत्ति हो जाय । अथवा जैसे चञ्चल नेत्र वाली नायिका का अधर बधूक (वन्धुओं के जीव) की प्रभा को हरता है, तो वह दूसरे जीवों की प्रभा को हरे, इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ? । ___ इस पद्य में जो बन्धुओं तक के जीवन हर सकता है ( बन्धुजीव पुष्प की शोभा को हरता है), वह दूसरों के जीवन को क्यों न हरेगा, यह श्लेपानुप्राणित अर्थापत्ति है। जो नायिका के स्तन खुद अपने ही हृदय को फोड़कर बाहर निकल आये हैं, उन्हें अन्य म्यक्ति के हृदय को फोड़ने में दया क्यों आने लगी ? - इसमें, जो खुद के हृदय को फोड़ने से नहीं हिचकिचाता, वह दूसरों पर क्यों दया। करेगा, यह अर्थापत्ति है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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