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________________ कुवलयानन्दः यथा वा कमलमनम्भसि कमले कुवलये तानि कनकलतिकायाम् । सा च सुकुमारसुभगेत्युत्पातपरम्परा केयम् ॥ अत्राये सूर्यस्य प्रसिद्धाधारस्याभावेऽपि तत्कराणामन्यत्रावस्थितिरुक्ता । द्वितीये त्वम्भसःप्रसिद्धाधारस्याभावेऽपि कमल-कुवलययोरन्यत्रावस्थितिरुक्ता। क्वचित्प्रसिद्धाधाररहितानामाधारान्तरनिर्देशं विनवाप्रलयमवस्थितेवर्णनं दृश्यते। यथा वा ( रुद्रटा० ) दिवमप्युपयातानामाकल्पमनल्पगुणगणा येषाम् । रमयन्ति जगन्ति गिरः कथमिह कवयो न ते वन्द्याः ।। अत्र कवीनामभावेऽपि तद्विरामाधारान्तरनिर्देशं विनवाप्रलयमवस्थितिवर्णिता ॥ ६ ॥ जहाँ किसी प्रसिद्ध आधार के बिना ही आधेय का वर्णन किया जाय, वहाँ विशेष अलङ्कार होता है । जैसे, सूर्य के चले जाने पर (अस्त हो जाने पर) भी उसकी किरणे दीपक में स्थित रहकर अन्धकार का नाश करती हैं। यहाँ सूर्य की किरणें आधेय हैं, सूर्य आधार, सूर्यरूप प्रसिद्ध आधार के बिनाभी यहाँ तकिरणों (आधेय) का वर्णन किया गया है, अतः यहाँ 'विशेष' अलङ्कार है। अथवा जैसे, _ 'पता नहीं' यह कौन सी उत्पात परम्परा है बिना पानी के भी कमल (मुँह) विद्यमान है और उस कमल में भी दो कमल ( नेत्र) हैं । ये तीनों कमल सुवर्ण की लता (सुन्दरी का कलेवर) में लगे हुए हैं। यह सुवर्ण की लता अत्यधिक कोमल तथा सुन्दर है।' यहाँ कवि किसी नायिका का वर्णन कर रहा है, उसे नायिका की सुवर्णलता सदृश गात्रयष्टि की सुकुमारता तथा उसमें विद्यमान कमलसदृश मुख तथा कुवलयद्वयसदृश नेत्रद्वय का वर्णन करना अभीष्ट है। किन्तु यहाँ भी बिना जल (आधार ) के कमल (आधेय) की स्थिति का वर्णन किया गया है, अतः विशेष अलङ्कार है। ___ यहाँ प्रथम उदाहरण में सूर्य अपनी किरणों का प्रसिद्ध आधार है, उसके अभाव में भी सूर्यकिरणों की स्थिति का वर्णन किया गया है। इसी तरह दूसरे उदाहरण में जल कमल का प्रसिद्ध आधार है, उसके बिना भी कमल कुवलय की कनकलतिका में स्थिति वर्णित की गई है। (अतः आधार के विना आधेय का वर्णन होने से, विशेष अलंकार है।) कभी-कभी प्रसिद्ध आधार से रहित आधेयों का कोई अन्य आधार नहीं बताया जाता (जैसे पूर्वोदाहृत उदाहरणों में दीपक तथा कनकलतिका के आधारान्तर की कल्पना की गई है) तथा किसी आधारविशेष के बिना ही उनकी आप्रलयस्थिति का वर्णन किया जाता है। जैसे___यद्यपि कवि स्वर्ग को चले जाते हैं, तथापि उनकी अत्यधिक गुणों से युक्त वाणी प्रलयपर्यन्त (आकल्प) समस्त लोकों को प्रसन्न किया करती हैं। भला बताइये, ऐसे कवि क्यों कर वन्दनीय नहीं हैं ? अर्थात् ऐसे कवि निःसंदेह बंदनीय हैं, जिनकी वाणी उनके स्वर्गत होने पर भी समस्त लोकों को आकल्प आनंदित करती रहती हैं। यहाँ कवि आधार है, वाणी आधेय । कविरूप आधार के स्वर्गत होने पर उसके
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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