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________________ विशेषालङ्कारः १६६ दनेनोपकारः कृतः । तथा प्रपापालिकयापि पानीयपानव्याजेन चिरं स्वमुखावलोकनमभिलषतः पथिकस्य धारातनूकरणतश्चिरं पानीयपानानुवृत्तिसम्पादनेनोपकारः कृतः । अत्रोभयोापाराभ्यां स्वस्वोपकारसद्भावेऽपि परस्परोपकारोऽपि न निवार्यते ।। १८॥ ४४ विशेषालङ्कारः विशेषः ख्यातमाधारं विनाप्याधेयवर्णनम् । गतेऽपि सूर्ये दीपस्थास्तमश्छिन्दन्ति तत्कराः ॥ ९९ ॥ देर तक आकर्षण पसन्द करती है, बड़ी देर तक अपने मुख का अवलोकन कराना चाहती है-उपकार किया है। इसी प्रकार प्रपापालिका ने पानी पीने के बहाने बड़ी देर तक अपने मुख को देखने की इच्छा वाले पथिक का-जल की धारा को मन्दा बनाकर पानी पिलाने की चेष्टा के द्वारा-उपकार किया है। इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे का उपकार किया है, अतः यहाँ अन्योन्य अलङ्कार है। यहाँ यद्यपि दोनों-पथिक और प्रपापालिकाके व्यापार के द्वारा अपना अपना उपकार किया जा रहा है, तथापि वे एक दूसरे का भी उपकार अवश्य कर रहे हैं, अतः उनके द्वारा विहित परस्परोपकार का निषेध नहीं किया जा सकता। टिप्पणी-पण्डितराज जगन्नाथ ने इस सम्बन्ध में कुवलयानन्दकार के इस उदाहरण की आलोचना की है। वे इस विषय में अप्पयदीक्षित की मीमांसा से दोष बताते हैं । प्रथम, तो दीक्षित जी की 'अत्र प्रपापालिकायाः "पानीयदामानुवृत्तिसंपादनेनोपकारः कृतः' इस वृत्तिभाग की पदरचना को ही पण्डितराज ने दुष्ट तथा व्युत्पत्तिशिथिल बताया है। 'तावदियं पदरचनैवायुष्मतो ग्रन्थकर्तुर्युत्पत्तिशैथिल्यमुद्विरति । (रस० पृ० ६१२ ) यहाँ प्रपापालिका के साथ पहले वाक्य में प्रयुक्त 'स्वमुखावलोकनमभिलषन्त्या' तथा द्वितीय वाक्य में पथिक के साथ प्रयुक्त 'स्वमुखावलोकनमभिलषतः' में प्रयुक्त 'स्व' शब्द का बोधकत्व ठीक नहीं बैठता; यह पदरचना इतनी शिथिल है कि प्रथम 'स्व' शब्द पान्थ के साथ अन्वित जान पड़ता है, दूसरा 'स्व' शब्द प्रपापालिका के साथ । जब कि कवि का भाव भिन्न है। अतः यह 'स्व' शब्द का प्रयोग ठीक उसी तरह दुष्ट है, जैसे 'निजतनुस्वच्छलावण्यवापीसंभूताम्भोजशोभां विदधदभिनवो दण्डपादो भवान्या:' में 'भवान्या:' के साथ अभीष्टसम्बन्ध 'निज' शब्द 'दण्डपाद:' के संबद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह उदाहरण भी 'अन्योन्य' अलंकार का नहीं है। यहाँ पथिक ने अंगुलियाँ इसलिए विरल कर रखी हैं कि वह खुद प्रपालिका को देखना चाहता है, इसी तरह प्रपालिका ने धारा इसलिए मन्दी कर दी है कि वह खुद पथिक के मुख को देखना चाहती है, इस प्रकार यहाँ 'स्व-स्वकर्तृकचिरकालदर्शन' ही अभीष्ट है तथा वही चमत्कारी है, 'परकर्तृकचिरकालनिजदर्शन' नहीं, अतः परस्परोपकार नहीं है। इसलिये अन्योन्य अलंकार के उदाहरण के रूप में इस पद्य का उपन्यास ठीक नहीं जान पड़ता। (इह हि धारावनूकरणा १लिविरलीकरणयोः कर्तृभ्यां स्व-स्वकर्तृकचिरकालदर्शनार्थ प्रयुक्तयोस्तत्रैवोपयोगश्चमत्कारी, नान्यकर्तृकचिरकालदर्शन इत्यनुदाहरणमेवैतदस्यालङ्कारस्येति सहृदया विचारयन्तु ।) (रसगंगाधर पृ० ६१४) ४४. विशेष अलङ्कार ९९-हम देखते हैं कि कोई भी आधेय किसी आधार के बिना स्थित नहीं रह पाता। कवि कभी-कभी अपनी प्रतिभा से आधार के बिना भी आधेय का वर्णन करा देता है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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