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________________ विशेषालङ्कारः . विशेषः सोऽपि यद्येकं वस्त्वनेकत्र वर्ण्यते । अन्तर्बहिः पुरः पश्चात् सर्वदिक्ष्वपि सैव मे ॥ १०॥ यथा वा हृदयात्रापयातोऽसि दिक्षु सर्वासु दृश्यसे । वत्स राम ! गतोऽसीति सन्तापेनानुमीयसे ।। १०० ।। .किंचिदारम्भतोऽशक्यवस्त्वन्तरकृतिश्च सः। . त्वां पश्यता मया लब्धं कल्पवृक्षनिरीक्षणम् ॥ १०१ ॥ अभाव में भी किसी अन्य आधार का निर्देश न करते हुए आधेय (कविगिरा) की आप्रलय स्थिति का वर्णन किया गया है, अतः यह भी विशेष अलंकार है। १००-जहाँ एक ही वस्तु का अनेकन्न वर्णन किया जाय, वहाँ भी विशेष अलंकार ही होता है। जैसे, हे वत्स राम, तुम मेरे हृदय से नहीं हटते हो, मुझे सारी दिशाओं में तुम्ही दिखाई देते हो, हे राम, तुम वैसे तो मेरी आँखों के सामने हो, मुझे हर दिशा में दिखाई दे रहे हो, पर यह संताप इस बात का अनुमान करा रहा है कि तुम चले गये हो । यहाँ राम का अनेकत्र वर्णन किया गया है, अतः विशेष अलंकार है।। टिप्पणी-विशेष अलंकार के इस दूसरे भेद का एक उदारहण यह दिया जा सकता है: प्रासादे सा पथि पथि च सा पृष्ठतः सा पुरःसा, पर्यः सा दिशि दिशि च सा तद्वियोगातुरस्य । हंहो चेतःप्रकृतिरपरा नास्ति मे कापि सा सा सा सा सा सा जगति सकले कोयमद्वैतवादः॥ १०१-जहाँ किसी वस्तु के आरंभ से अन्य अशक्य वस्तु की रचना का वर्णन किया जाय, वहाँ भी विशेष (तीसरा भेद) होता है। जैसे, हे राजन् , तुम्हें देखकर मैंने कल्पवृक्ष का दर्शन कर लिया है। यहाँ राजा के दर्शनारंभ से कल्पवृक्षरूप अशक्य वस्त्वन्तर (दूसरी वस्तु) के दर्शन की कल्पना की गई है। अतः यहाँ विशेष का तीसरा प्रकार है। टिप्पणी-पण्डितराज जगन्नाथ ने विशेष अलंकार के तीसरे प्रकार का विवेचन करते हुए प्राचीनों का मत दिया है, तथा उनके अनुसार इस प्रकार की अशक्यवस्त्वंतरकरणपूर्वक शैली में विशेष अलंकार माना है। इसी संबंध में 'येन दृष्टोऽसि देव स्वं तेन दृष्टः सुरेश्वरः' इस उदाहरण में उन्होंने विशेष अलंकार नहीं माना है। वे यहाँ निदर्शना अलंकार मानते हैं। इसी तरह कुवलयानंदकार के द्वारा उदाहरण 'स्वां पश्यता मया लब्धं कल्पवृक्षनिरीक्षणम्' में भी वे निदर्शना ही मानते हैं । वे इस संबंध में दो उदाहरण देते हैं :१. किं नाम तेन न कृतं सुकृतं पुरारे दासीकृता न खलु का भुवनेषु लक्ष्मीः । भोगा न के बुभुजिरे बिबुधेरलभ्या येनार्चितोसि करुगाकर हेलयापि ॥ यहाँ पुरारि की पूजा करने से त्रिवर्ग का अशक्यवस्त्वन्तरकरणत्व वर्णित है। यहाँ शिवपूजा के साथ पुण्य करणादि की कोई सादृश्यविवक्षा नहीं पाई जाती, अतः इसमें निदर्शना नहीं माना जा सकती, जैसा कुवलयानन्दकार के द्वारा दिये गये उदाहरण में है। यहाँ विशेष का तीसरा भेद है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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