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________________ हन कुवलयानन्दः उच्चरद्भरिकीलालः शुशुभे वाहिनीपतिः ॥ ६५ ॥ अनेकार्थशब्दविन्यासः श्लेषः। स च त्रिविधः-प्रकृतानेकविषयः, अप्रकृतानेकविषयः, प्रकृताप्रकृतानेकविषयश्च । 'सर्वदा' इत्यादिक्रमेणोदाहरणानि | तत्र 'सर्षदोमाधव, इति स्तोतव्यत्वेन प्रकृतयोर्हरिहरयोः कीर्तनं प्रकृतश्लेषः । अब्ज कमलम् , अब्जश्चन्द्रः, तयोरुपमानमात्रत्वेनाप्रकृतयोः कीर्तनमप्रकृतश्लेषः। वाहिनीपतिः सेनापतिःसमुद्रश्च । तत्र समितौ शस्त्रप्रहारोत्पतद्रुधिरस्य सेनापतेरेव वर्णनं प्रकृतमिति प्रकृताप्रकृतश्लेषः । यथा वा त्रातः काकोदरो येन द्रोग्धापि करुणात्मना। पूतनामारणख्यातः स मेऽस्तु शरणं प्रभुः॥ नीतानामाकुलीभावं लुब्धैभूरिशिलीमुखैः । सदृशे वनवृद्धानां कमलानां त्वदीक्षणे ॥ (३) वह सेनापति, जिसका रुधिर शस्त्रपात के कारण निकल रहा था, सुशोभित हो रहा था। (सेनापतिपक्ष) वह समुद्र, जिसका जल उफन रहा था, सुशोभित हो रहा था। (समुद्रपक्ष) जहाँ अनेकार्थ शब्दों का विन्यास हो, वहाँ श्लेष होता है। यह तीन प्रकार का होता है-अनेक प्रकृतपदार्थविषयक, अनेकाप्रकृतपदार्थविषयक तथा अनेक प्रकृताप्रकृतपदार्थविषयक । 'सर्वदा' इत्यादि तीन श्लोकाों के द्वारा क्रमशः एक-एक का उदाहरण दिया गया है । प्रथम उदाहरण में 'सर्वदो माधवः' इत्यादि के द्वारा स्तुतियोग्य प्रकृत (प्रस्तुत) विष्णु तथा शिव दोनों का वर्णन किया गया है, अतः यहाँ दोनों के प्रकृत होने के कारण प्रकृतश्लेष है। दूसरे उदाहरण में अब्ज का एक अर्थ है कमल, अब्ज का दूसरा अर्थ है चन्द्रमा, ये दोनों सुन्दरी के मुख के उपमान हैं, अतः यहाँ दोनों अप्रकृतों का वर्णन पाया जाता है। यहाँ अप्रकृतश्लेष पाया जाता है। तीसरे उदाहरण में वाहिनीपति का अर्थ सेनापति तथा समुद्र दोनों है । यहाँ युद्धस्थल में शस्त्रपात से निकलते रुधिर वाले सेनापति का ही वर्णन प्रस्तुत है; अतः प्रकृताप्रकृतश्लेष है। अथवा जैसे: (१) प्रकृतश्लेष का उदाहरण जिन करुणामा रामचन्द्र ने द्रोहकर्ता भयशून्य कौवे (जयन्त) की भी रक्षा की, जो पवित्रनाम वाले तथा युद्धकौशल में प्रसिद्ध हैं, वे राम मेरे शरण बनें। (राम पक्ष) जिन करुणात्मा कृष्ण ने द्रोहकर्ता सर्प (कालिय) की भी रक्षा की तथा जो पूतना के मारने के लिए प्रसिद्ध हैं, वे कृष्ण मेरे शरण बनें । (कृष्णपक्ष) (२) अप्रकृतश्लेष का उदाहरण हे सुन्दरि, तुम्हारे दोनों नेत्र उन कमलों के समान हैं, जो मधु के लोभी भौंरों के द्वारा ग्याप्त हैं तथा जल में वृद्धि को प्राप्त हुए हैं । (कमलपक्ष) - हे सुन्दरि, तुम्हारे दोनों नेत्र उन हरिगों (कमल-एक विशेष जाति का हरिण)
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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