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________________ श्लेषालङ्कारः र असावुदयमारूढः कान्तिमान रक्तमण्डलः । राजा हरति लोकस्य हृदयं मृदुलैः करैः ।। इति । तत्राद्ये स्तोतव्यत्वेन प्रकृतयो राम-कृष्णयोः श्लेषः । द्वितीये उपमानत्वेना. प्रकृतयोः पद्म-हरिणयोः श्लेषः । तृतीये 'राजा हरति लोकस्य' इति चन्द्रवर्णनप्रस्तावे प्रत्यग्रोदितचन्द्रस्याप्रकृतस्य नवाभिषिक्तस्य नृपतेः श्लेषः। यदत्र प्रकृताप्रकृतश्लेषोदाहरणे शब्दशक्तिमूलध्वनिमिच्छन्ति प्राश्चः, तत्प्रकृताभिधानमूलकस्योपमादेरलङ्कारस्य व्यङ्ग-यत्वाभिप्रायम्, नत्वप्रकृतार्थस्यैव व्यङ्गयत्वाभिप्रायम् । अप्रकृतार्थस्यापि शब्दशक्त्या प्रतिपाद्यस्याभिधेयत्वाव. श्यंभावेन व्यक्त्यनपेक्षणात् । यद्यपि प्रकृतार्थे प्रकरणबलाज्झटिति बुद्धिस्थे सत्येव पश्चान्नृपतितग्राह्यधनांदिवाचिनां राजकरादिपदानामन्योन्यसंनिधान के समान हैं, जो व्याधों के द्वारा वाणों से व्याकुल बना दिये गये हैं तथा वन में वृद्धि को प्राप्त हुए हैं । (हरिणपक्ष) (३) प्रकृताप्रकृतश्लेष का उदाहरण उन्नतिशील सुन्दर राजा, जिसने समस्त देश को अनुरक्त कर रक्खा है, थोड़े कर का ग्रहण करने के कारण प्रजा के हृदय को आकृष्ट करता है । (राजपक्ष) उदयाचल पर स्थित लाल रंग वाला सुन्दर चन्द्रमा कोमल किरणों से लोगों के हृदय को आकृष्ट कर रहा है । (चन्द्रपक्ष) . इन उपर्युक्त उदाहरणों में प्रथम उदाहरण में राम तथा कृष्ण दोनों की स्तुति अभीष्ट है, अतः राम कृष्ण दोनों प्रकृत होने के कारण, प्रकृतश्लेष पाया जाता है। द्वितीय उदाहरण में कमल तथा हरिण दोनों नायिका के नेत्रों के उपमान हैं, वे दोनों अप्रकृत हैं, अतः यहाँ अप्रकृतश्लेष है। तीसरे उदाहरण में 'राजा हरति लोकस्य' के द्वारा चन्द्रवर्णन कवि को अभीष्ट है, अतः अभिनव उदित चन्द्रमा (अप्रकृत) तथा नवाभिषिक राजा (प्रकृत) का श्लेष पाया जाता है। प्राचीन आलंकारिक ऐसे स्थलों पर जहाँ प्रकृत तथा अप्रकृत श्लेष पाया जाता है, (श्लेष अलङ्कार न मानकर) शब्दशक्तिमूलक ध्वनि मानते हैं। इसका एकमात्र अभिप्राय यह है कि यहाँ प्रकृत तथा अप्रकृत पक्षों के वाच्यार्थ से प्रतीत उपमादि अलङ्कार व्यंग्य होता है, वे शब्दशक्तिमूलध्वनि का व्यपदेश इसलिए नहीं करते कि यहाँ अप्रकृत अर्थ भी व्यंग्य (व्यञ्जनागम्य) होता है। अप्रकृत (चन्द्रपक्षगत) अर्थ के भी शब्दशक्ति के द्वारा प्रतिपाद्य होने के कारण उसमें अभिधेयत्व (वाच्यत्व) अवश्य मानना होगा तथा उसके लिए व्यंजना की कोई आवश्यकता नहीं। यदि पूर्वपक्षी (प्राच्य आलङ्कारिक) यह दलील दें कि यहाँ प्रकृतार्थ (राजविषयक प्राकरणिक अर्थ) प्रकरण के कारण एकदम प्रथम क्षण में ही बुद्धिस्थ हो जाता है, जब कि इसके बाद नृपति (राजा) तथा उसके द्वारा ग्राह्य धनादि (कर आदि) प्राकरणिक तत्तत् अर्थों के वाचक राज, कर आदि पदों के एक दूसरे से अन्वित होने के कारण उस उस अर्थ के द्वारा अन्य किसी शक्ति के विकसित होने पर अप्राकरणिक (चन्द्रपक्ष वाले) अर्थ की स्फूर्ति होती है (अतः वह व्यंग्य हो जाता है), तो इस दलील का उत्तर यह है कि इतने भर से अप्राकरणिक अर्थ व्यंग्य नहीं हो जाता। क्योंकि जहाँ अभिधाशक्ति से
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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