________________
कुवलयानन्दः
पिताप्रस्तुतव्यवहारसमारोपमात्रमिह चारुताहेतुः । यद्यपि प्रस्तुताप्रस्तुतवृत्तान्तयोरिह श्लिष्टसाधारणविशेषणसमर्पितयोभिन्नपदोपात्तविशेषणयोरिव विशेष्येणैव साक्षादन्वयादस्ति समप्राधान्यम् , तथाप्यप्रस्तुतवृत्तान्तान्वयानुरोधान्न प्रस्तुतेऽ. प्रस्तुतरूपसमारोपोऽङ्गीकार्यः । तथा हि-यथा प्रस्तुतविशेष्ये नास्त्यप्रस्तुत वृत्तान्तस्यान्वययोग्यता तथैव वाऽप्रस्तुतेऽपि जारादौ नास्ति प्रस्तुतवृत्तान्तस्याअप्रस्तुत को प्रधान बना दे, जिससे चन्द्रमा, कन्दुक तथा वृत्तों पर उनके तत्तत् धर्म का समारोप माना जाय।)
इसलिए यह स्पष्ट है कि समासोक्ति अलंकार में चमत्कार का कारण प्रस्तुत पर केवल अप्रस्तुत का व्यवहारसमारोप ही (रूपसमारोप नहीं) माना जाना चाहिए, जो तत्तत् प्रकार के विशेषण के कारण व्यंजित होता है।
(पूर्वपक्षी को पुनः यह शंका हो सकती है कि यद्यपि यहाँ 'विद्युन्नयन' की भांति समासगत श्रोत (शाब्द) अप्रस्तुतप्राधान्य नहीं पाया जाता, तथापि अप्रस्तुतवृत्तान्त की प्रतीति विशेषण के सामर्थ्य से हो ही रही है और उसका आर्थ प्राधान्य तो है ही। ऐसी शंका को उपस्थित कर इसका समाधान करते हैं।) ___ यद्यपि समासोक्ति के इन स्थलों में श्लिष्टविशेषणसाम्य या साधारणविशेषण साम्य के कारण प्रस्तुताप्रस्तुतवृत्तान्त की प्रतीति ठीक वैसे ही हो रही है, जैसे तत्तत् वृत्तान्त के लिए भिन्न ( अश्लिष्ट अलग २) पद विशेषण के रूप में प्रयुक्त किये गये हों तथा उनका साक्षात् अन्वय विशेष्य (प्रस्तुताप्रस्तुत दोनों के साथ न कि केवल प्रस्तुत) के साथ घटित होता है, अतः दोनों का समप्राधान्य हो जाता है, तथापि प्रस्तुत में अप्रस्तुतवृत्तान्त का अन्वय आवश्यक है, इसलिए प्रस्तुत में अप्रस्तुत का रूप समारोप नहीं माना जा सकता।
(भाव यह है, 'रक्तश्चुम्बति चन्द्रमाः' इत्यादि स्थलों में श्लिष्टादिविशेषणों के द्वारा व्यंजित परनायिका मुखचुम्बनादिरूप अप्रस्तुत वृत्तान्त प्रथम क्षण में ही अप्रस्तुत के रूप में प्रतीत नहीं होता, जिससे हम अप्रस्तुत जारादि का आरोप प्रस्तुत चन्द्रादि पर कर सके। हमें इस अप्रस्तुतवृत्तान्त की प्रतीति तटस्थ रूप में होती है तथा तदनन्तर जारत्वादिविशिष्ट अनुरागपूर्वकवदनचुम्बनादिरूप अप्रस्तुत वृत्तान्त का प्रस्तुत चन्द्रादिवृत्तान्त पर व्यवहार समारोप होता है। इसी को स्पष्ट करते फिर कहते हैं)। ___ हम देखते हैं कि जिस तरह प्रस्तुत विशेष्य (चन्द्रादि) में अप्रस्तुत वृत्तान्त (जारवृत्तान्तादि) की अन्वययोग्यता नहीं है (क्योंकि वह समप्रधान है), ठीक इसी तरह अप्रस्तुत जारादि में भी प्रस्तुत वृत्तान्त (चन्द्रनिशावृत्तान्त ) की अन्वययोग्यता नहीं। (यहाँ उत्तरपक्षी ने इस शंका को मानकर समाधान किया है कि प्रस्तुत चन्द्रादिवृत्तान्त का अप्रस्तुत जारादिवृत्तान्तरूप धर्मी में अन्वय माना जा सकता है । इसी शंका को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि वस्तुतः न तो प्रस्तुत ही अप्रस्तुतवृत्तान्त का अन्वयी (धर्मी) है, न अप्रस्तुत ही प्रस्तुत वृत्तान्त का अन्वयी है। किसी में भी एक दूसरे के साथ अन्वित होने की योग्यता नहीं पाई जाती। इसीलिए दोनों अर्थ समप्रधान हैं। ऐसा मानने पर पूर्वपक्षी फिर एक शंका उठा सकता है कि यदि किसी में दूसरे के साथ अन्वित होने की योग्यता नहीं है, तो फिर किसी का भी किसी के साथ अन्वय न होगा। इसी का समाधान करते कहते हैं।)
टिप्पणी-अलंकार चन्द्रिका के निर्णयसागर संस्करण में यह पंक्ति अशुद्ध छपी है :--'यथा.