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________________ समासोक्त्यलङ्कारः ६१ न्वययोग्यता | एवं च समप्रधानयोः प्रस्तुताप्रस्तुतवृत्तान्तयोरन्यतरस्यारोपेऽव. श्यमभ्युपगन्तव्ये श्रुत एव प्रस्तुतेऽप्रस्तुतवृत्तान्तस्यारोपश्चारुताहेतुरिति युक्तम् ! नन्वेवं सति विशेषणसाम्यादप्रस्तुतस्य गम्यत्वे समासोक्तिः । 'विशेषणानां साम्येन यत्र प्रस्तुतवर्तिनाम् । अप्रस्तुतस्य गम्यत्वं सा समासोक्तिरिष्यते॥' इत्यादीनि प्राचीनानां समासोक्तिलक्षणानि न संगच्छेरन् । प्रस्तुते श्लिष्टसाधा. रणादिरूपविशेषणसमपितानुरागपूर्वकवदनचुम्बनाद्यप्रस्तुतवृत्तान्तसमारोपमा त्रस्य चारुताहेतुत्वाभ्युपगमेन विशेषणसाम्यकृतकामुकाद्यप्रस्तुतधमिव्यञ्जनानपेक्षणादिति चेत्-उच्यते; स्वरूपतोऽप्रस्तुतवृत्तान्तस्यारोपो न चारुताहेतुः, किंत्व नास्त्यप्रस्तुतवृत्तान्तस्यान्वयायोग्यता....."प्रस्तुतवृत्तान्तस्यान्वययोग्यता ।' यहाँ पहले वाक्यांश में 'अन्वयायोग्यता' पाठ है, दूसरे में 'अन्वययोग्यता'। यह गलत पाठ है। वस्तुतः यहाँ दोनों पक्षों में योग्यतारूपविनिगमक का अभाव बताना इष्ट है, जो इस पाठ से प्रतीत नहीं होता। कुम्भकोणम् से प्रकाशित कुवलयानन्द में यह पाठ दोनों स्थानों पर 'अन्वययोग्यता' है. जो दोनों वाक्यांशों में 'नास्ति' के साथ अन्वित होकर 'योग्यतारूप विनिगमकविरह' की प्रतीति कराता है । दे० कुवलानन्दः [ रसिकरंजिनी टीका सहित ] पृ० १०५) जब दोनों पक्ष समप्रधान हैं, तो हमें प्रस्तुतवृत्तान्त या अप्रस्तुतवृत्तान्त में से किसी न किसी एक पक्ष का दूसरे पर आरोप अवश्य मानना होगा (अन्यथा ऐसा वर्णन कवि क्यों करता), हम देखते हैं कि काव्यवाक्यार्थ से हमें सर्वप्रथम प्रस्तुत वृत्तान्त की ही प्रतीति होती है, अतः श्रुत प्रस्तुत वृत्तान्त पर ही (व्यंग्य) अप्रस्तुत वृत्तान्त का आरोप चमत्कार का कारण है, ऐसा सिद्धान्त मानना ठीक जान पड़ता है। (पूर्वपक्षी फिर एक प्रश्न पूछता है कि यह आरोप तो धर्मिविशिष्टतारहित व्यापार का भी हो सकता है, साथ ही आप जो धर्मिविशिष्ट व्यापार का व्यवहार समारोप मानते हैं, वह तो प्राचीन आलंकारिकों के समासोक्ति के लक्षण से ठीक नहीं मिलता। हम प्रतापरुद्रीयकार विद्यानाथ का निम्न लक्षण ले लें।) पूर्वपक्षी की शंका है कि आपके मत को मानने पर तो प्राचीनों का यह मत कि 'विशेषणसाम्य से अप्रस्तुत के व्यंजित होने पर समासोक्ति होती है, 'जहाँ प्रस्तुत के लिए प्रयुक्त विशेषणों के साम्य से अप्रस्तुत की व्यञ्जना हो, वहाँ समासोक्ति होती है। ये प्राचीन आलंकारिकों के लक्षण ठीक नहीं बैठेंगे। हम देखते हैं कि इनके मतानुसार श्लिष्ट या साधारण विशेषगों के द्वारा प्रत्यायित 'प्रेमपूर्वक मुखचुम्बन' आदि अप्रस्तुतवृत्तान्त के समारोप में ही चारुताहेतु माना जा सकता है, फिर तो विशेषणसाम्य के कारण प्रतीत जारादि अप्रस्तुत धर्मी की व्यञ्जना की कोई जरूरत है ही नहीं (जब कि आप-सिद्धान्त. पक्षो-जारादि अप्रस्तुत धर्मी की व्यञ्जना होना भी जरूरी मानते हैं) यदि पूर्वपक्षी यह शंका करे तो इसका उत्तर यों दिया जा सकता है। अप्रस्तुतवृत्तान्त का स्वरूपतः आरोप किसी भी चमत्कार को उत्पन्न नहीं करता। यहाँ चमत्कारप्रतीति तभी हो पाती है, जब कि अप्रस्तुस कामुकादि से संबद्ध होकर (तद्धर्मिविशिष्ट होकर) वह व्यंग्यरूप अप्रस्तुत. वृत्तान्त प्रस्तुतवृत्तान्त पर आरोपित किया जाय । ऐसा होने पर ही वह रसानुगुण हो सकेगा। (भाव यह है, यदि हम यह माने कि चन्द्रमा पर प्रेमपूर्वक निशावदनचुम्बन
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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