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________________ समासोक्त्यलङ्कारः ८६ भावात् । तत्र हि 'विद्युन्नयनैः' इत्यत्र निरीक्षणानुगुण्यादुत्तरपदार्थप्रधानरूपमयूरव्यंसकादिसमासव्यवस्थितादुत्तरपदार्थभूतनयनान्वयानुरोधात् पयोदेऽनुक्तमपि द्रष्ट्रपुरुषत्वरूपणं गम्यमुपगम्यते । न चेह तथानिरीक्षणवत् 'त्वय्यागते किमिति वेपत एष सिन्धुः' इति श्लोके सेतुकृत्त्वादिवच्चाप्रस्तुतसाधारणवृत्तान्त उपात्तोऽस्ति। नापि श्लिष्टसाधारणादिविशेषणसमर्पितयोः प्रस्तुताप्रस्तुतवृत्तान्तयोरप्रस्तुतवृत्तान्तस्य विद्युन्नयनवत्प्राधान्यमस्ति । येन तदनुरोधात्त्वं सेतुमन्थ. कृदित्यत्रेव प्रस्तुतेऽनुक्तमप्यप्रस्तुतरूपसमारोपमभ्युपगच्छेमातस्माद्विशेषणसम प्रधानता हो जाती है, क्योंकि निरीक्षण क्रिया में वही घटित होता है। ऐसा मानने पर यहाँ उत्तरपदार्थ प्रधान मयूरव्यंसकादि समास मानना होगा, इस सरणि से उत्तरपदार्थ 'नयन के संबंध के कारण हमें मेघ में दर्शक (द्रष्टा पुरुष) के आरोप की प्रतीति होती है, यद्यपि कवि ने उसके लिए किसी वाचक शब्द का प्रयोग नहीं किया है। इसलिए 'विद्युन्नयनः' के एकदेश में रूपक होने से यहाँ सर्वत्र रूपक की व्यवस्था माननी पड़ेगी। 'रक्तश्चम्बति चन्द्रमा' आदि समासोक्ति के पूर्वोदाहृत तीन उदाहरणों में यह बात नहीं है। जिस तरह 'निरीक्ष्य' इत्यादि पद्य में निरीक्षण क्रिया रूप अप्रस्तुत साधारण वृत्तान्त का उपादान किया गया है, अथवा जैसे 'स्वय्यागते किमिति वेपत एष सिन्धुः' इत्यादि रूपकालंकार के प्रसंग में उदाहृत पद्य में सेतुमन्थनकृत्त्व रूप अप्रस्तुत साधारणवृत्तान्त का उपादान किया गया है, वैसा यहाँ कोई भी अप्रस्तुतसाधारणवृत्तान्त नहीं दिखाई देता। टिप्पणी-पूरा पद्य यों है । इसका व्याख्या रूपक के प्रकरण में देखें । त्वय्यागते किमिति वेपत एष सिन्धुस्त्वं सेतुमन्थकृदतः किमसौ बिभेति । द्वीपान्तरेऽपि न हि तेऽस्त्यवशंवदोऽद्य त्वां राजपुङ्गव, निषेवत एव लक्ष्मीः । (पूर्वपक्षी को पुनः यह शंका हो सकती है कि यहाँ भी परनायिका मुखचुम्बन रूप अप्रस्तुत वृत्तान्त का प्रयोग हुआ है और अप्रस्तुतसाधारणधर्म होने के कारण अप्रस्तुत रूप समारोप (आरोप)का व्यंजक है-अतः इसका समाधान करते कहते हैं-) माना कि यहाँ (समासोक्ति में) श्लिष्ट, साधारण तथा सादृश्यगर्भ विशेषणों के कारण प्रस्तुत व अप्रस्तुत वृत्तान्तों की प्रतीति होती है, किंतु रूपक तो तब माना जा सकता है, जब इन दोनों में अप्रस्तुत की प्रधानता हो, जिस तरह 'विद्यन्नयन' में नयन (अप्रस्तुत) का प्राधान्य होने से वहाँ रूपक होता है, वैसे यहाँ (रक्तश्चम्बति' आदि स्थलों में) अप्रस्तुत के प्राधान्य की व्यवस्था करने में कोई नियामक नहीं दिखाई देता। जिससे उस नियामक तत्त्व ( हेतु या गमक) के कारण (तदनुरोधात्) हम इन स्थलों में भी अनुक्त अप्रस्तुत. रूपसमारोप की प्रतीति ठीक वैसे ही कर लें, जैसे अप्रस्तुतरूपसमारोप के साक्षात् वाचक हेतु के न होने पर भी हम त्वं सेतुमन्थकृत्' इत्यादि स्थल में प्रस्तुत (राजा) पर अप्रस्तुत (विष्णु) का रूपसमारोप कर लेते हैं। (भाव यह है, जिस तरह 'निरीक्ष्य' वाले पद्य में 'नयन' के द्वारा निरीक्षण तथा त्वय्यागते' वाले पद्य में 'सेतुमन्थकृत्व' का प्रयोग अप्रस्तुत (दर्शक तथा विष्णु) को प्रधान बनाकर दर्शकत्व तथा विष्णुत्व का मेघ एवं राजा (प्रस्तुत) पर रूपसमारोप करने में नियामक एवं गमक होता है, ठीक वैसे ही इन तीन समासोक्ति वाले उदाहरणों में ऐसा कोई गमक नहीं, जो क्रमशः जार, कामुक तथा कुटुम्बी वाले तत्तत्
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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