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________________ कुवलयानन्दः इत्यत्र मुखे चन्द्रत्वारो पहेतुचन्द्रपदसमाभिव्याहारवत् 'रक्तश्चुम्बति चन्द्रमा ' इत्यादिसमासोक्त्युदाहरणे चन्द्रादौ जारत्वाद्यारो पहेतोस्तद्वाचकपदसमभिव्याहारस्याभावात् । ८५ निरीक्ष्य विद्युन्नयनैः पयोदो मुखं निशायामभिसारिकायाः । धारानिपातैः सह किं नु वान्तश्चन्द्रोऽयमित्यार्ततरं ररास ॥' इत्येकदेशविवर्तिरूप कोदाहरण इव प्रस्तुतेऽप्रस्तुतरूपसमारोपगमकस्याप्यरही है। इन अप्रस्तुत वृत्तान्तों की व्यंजना इसलिए हो रही है कि उनका प्रस्तुत वृत्तान्त (विशेष्य ) में (चन्द्रपूर्वदिशागत वृत्तान्त, नायिका कन्दुकगत वृत्तान्त तथा तरुघनविरलभाव विपर्यास में) समारोप हो, क्योंकि कविव्यापार में ऐसा कोई प्रयोग नहीं पाया जाता जो प्रस्तुत वृत्तान्त से सर्वथा असंबद्ध हो। इसलिए समासोक्ति में चमत्कार का हेतु प्रस्तुतवृत्तान्त पर अप्रस्तुतवृत्तान्त का व्यवहार समारोप ही है । व्यवहार समारोप से हमारा यह तात्पर्य है कि रूपक की तरह यहां प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के रूप का समारोप नहीं होता । ( भाव यह है, रूपक में रूप का समारोप पाया जाता है, जब कि समासोक्ति में रूप का समारोप नहीं होता, केवल व्यवहार का समारोप होता है । ) उदाहरण के लिए 'मुखं चन्द्र:' इस उक्ति में रूपक अलंकार है, यहां मुख ( प्रस्तुत ) पर चन्द्रव (अप्रस्तुत के धर्म ) का आरोप पाया जाता है, इस आरोप के हेतु रूप में कवि ने स्पष्टतः चन्द्र पद का प्रयोग किया है। इस प्रकार रूपक में प्रस्तुत ( विषय ) के साथ ही साथ अप्रस्तुत (विषयी) को भी प्रयोग किया जाता है समासोक्ति के उदाहरण 'रक्तचुम्बति चन्द्रमाः' यह बात नहीं है, यहां चन्द्रादि के व्यापार पर जार-परनायिका आदि के व्यापार का ही समारोप पाया जाता है, चन्द्रादि पर जारत्वादि के रूप का समारोप नहीं, क्योंकि यदि यहां रूपसमारोप होता, तो जारादि ( अप्रस्तुत ) के वाचकपद का प्रयोग किया जाता, वह यहां नहीं किया गया है। अतः स्पष्ट है, समासोक्ति में अप्रस्तुत का वाचक प्रयुक्त नहीं होता । " ( इस संबंध में फिर एक शंका होती है कि यहां जारादि के वाचक पद का प्रयोग न होने पर श्रौत ( शाब्द) रूपक न मान कर आर्थ रूपक मान लिया जाय तथा रूपसमा - रोप को आर्थ ही माना जाय, इस प्रकार यहां रूपक अलंकार को व्यंग्य मानकर रूपकध्वनि मान लिया जाय, इसी शंका का समाधान करते है । ) 'रक्तश्चुम्बति चन्द्रमाः' आदि में ऐसा कोई हेतु नहीं है, जिससे हम वहां प्रस्तुत ( चन्द्रादि) पर अप्रस्तुत ( जारादि ) का वैसा रूप समारोप मान लें, जैसा कि निम्न एकदेशविवर्तिरूपक के उदाहरण में पाया जाता है। : मुख 'वर्षाकाल का वर्णन है । रात्रि के अन्धकार में प्रिय के पास अभिसरण करती नायिका 'को बिजली के नेत्रों से देखकर बादल ने सोचा कि क्या यह चन्द्रमा तो नहीं है, जिसे बूँदों की झड़ी ( जलधारा ) के साथ मैंने उगल दिया है; और ऐसा सोचकर वह जोर से चिल्लाने लगा ।' (यहां एकदेशविवर्तिरूपक अलंकार है । 'विद्यन्नयनैः' पद में 'विद्युत् एव नयनम्' इस विग्रह से रूपक अलंकार निष्पन्न होता है। इसके द्वारा मेघ पर दर्शक का आरोप होता है । हम देखते हैं कि इस पद्य में 'विद्यन्नयनैः' पद निरीक्षण क्रिया (निरीक्ष्य) का कारण है, अतः उसके अनुकूल होने के कारण इस समासान्तपद में उत्तरपदार्थ ( नयन ) की
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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