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________________ समासोक्त्यलङ्कारः ८७ अत्र च प्रस्तुताप्रस्तुतसाधारणविशेषणबलात् सारूप्यबलाद्वा यदप्रस्तुतवृत्तान्तस्य प्रत्यायनं तत्प्रस्तुते विशेष्ये तत्समारोपार्थ सर्वथैव प्रस्तुतानन्वयिनः कविसंरम्भगोचरत्वायोगात् । ततश्च समासोक्तावप्रस्तुतव्यवहारसमारोपश्चारुताहेतुः, न तु रूपक इव प्रस्तुतेऽप्रस्तुतरूपसमारोपोऽस्ति । 'मुखं चन्द्र' सकता है कि यहाँ विशेषणसाम्य के द्वारा व्यञ्जित सादृश्य की प्रतीति हो रही है, इससे विशेषणसाम्य का व्यञ्जकत्व तथा उससे प्रतीत सादृश्य का व्यंग्यत्व स्पष्ट है। परन्तु यहाँ पर प्रधानता विशेषणसाम्य की न होकर सारूप्य की है, अतः सारूप्य के व्यञ्जकत्व की महत्ता बताने के लिए ग्रन्थकार ने 'सारूप्यात' कहा है। भाव यह है, सारूप्यगत समासोक्ति में भी विशेषणसाम्य अवश्य होता है, किन्तु यह सारूप्य का उपस्कारक होता है तथा प्रस्तुत वृत्तान्त पर अप्रस्तुत वृत्तान्त का समारोप करने में सादृश्य का व्यञ्जकत्व प्रधान कारण होता है,। आगे ग्रन्थकार ने समासोक्ति के सम्बन्ध में यह कहा है कि समासोक्ति या तो विशेषणसाम्य से होती है या सारूप्य से, इसका भी यही अभिप्राय है कि एक में विशेषणसाम्य की प्रधानता होती है, दूसरे भेद में सारूप्य की। पंडितराज जगन्नाथ इस मत से सहमत नहीं। वे कुवलयानन्दकार के द्वारा समासोक्ति के उदाहरण रूप में उपन्यस्त 'पुरा यत्र स्रोतः"बुद्धिं द्रढयति' इस पद्य में समासोक्ति ही नहीं मानते, क्योंकि यहाँ समासोक्ति का कारण विशेषणसाम्य नहीं पाया जाता'समासोक्तिजीवातोर्बिशेषणसाम्यस्यात्राभावेन समासोक्तिताया एवानुपपत्तेः।' (रसगंगाधर पृ. ५१३) साथ ही वे इस बात का भी खंडन करते हैं कि समासोक्ति के लक्षण में 'विशेषणसाम्य अथवा सादृश्य से जहाँ प्रस्तुत से अप्रस्तुत व्यवहार की व्यञ्जना हो' ऐसा समावेश कर दिया जाय। वे इस स्थल में अप्रस्तुतप्रशसा मानते जान पड़ते हैं । (दे० वही पृ० ५१३-१४) ( साथ ही दे० रसगंगाधर पृ० ५४४-५४५) अप्पय दीक्षित के इस समासोक्तिभेद का खंडन कुवलयानन्दटीका 'रसिकरंजनी' के लेखक गंगाधराध्वरी ने भी किया है। गंगाधर इस पद्य में उपमाध्वनि मानते हैं। वस्तुतः पेड़ों की सघनता और विरलता का विपर्यास होने पर पर्वतों के कारण 'यह वही स्थान है' यह प्रत्यभिज्ञा उपमाध्वनि को ही पुष्ट करती है। _ 'अत्रेदं विचारणीयम् । 'पुरा यत्रे'त्युदाहरणे सारूप्यनिबंधना समासोक्तिरिति तावदयुक्तम् । प्रस्तुतविशेषणसदृशतया अप्रस्तुतवृत्तान्तावगतिर्हि विशिष्टयोरौपम्यगमिका पर्यवस्यतीति यथा ग्रामनगरादिः पूर्वदृष्टश्चिरकालव्यवधानेन पश्चादवलोक्यमानः प्राग्दृष्टविपरीततया सम्पत्तिदारिद्रयगृहादिविरलाविरलभावादिना अन्य इव प्रतीयमानः तद्वतचिरकाललुप्यमानप्राकारदीर्घिकातटाकादिभिः स एव ग्रामः, तदेवेदं नगरमिति प्रतीयते । तथे. दमपि वनं प्राग्लचमणसहितेन मया दृष्टं सम्प्रति चिरकालपरावृत्तेन परिदृश्यमानं वनगत. नदीस्रोतःपुलिनविपर्यासघनविरलभावादिमत्तया अन्यदिव प्रतीयमानं तदवस्थ एवायं शैलसन्निवेशः तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायत इत्युपमाध्वनेरेवोन्मेषात्समासोक्किगन्धस्यैवाभावात् । अत एव प्राचां ग्रन्थेषु विशेषणसाधारण्यश्लिष्टत्वसमासभेदाश्रयणैरप्रस्तुतव्यक्तावेव तस्या लक्षणं वर्णितमुपपद्यते । ( रसिकरंजिनीटीका पृ० १०८-१०९ कुम्भकोणम् से प्रकाशित ) __ऊपर के इन उदाहरणों में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में समान रूप से घटित होने वाले विशेषणों के कारण (जैसे 'अयमैंद्रीमुखं' या 'व्यावल्गत्कुचमार' इत्यादि में) या सारूप्य के कारण (जैसे पुरा यत्र स्रोतः' इत्यादि में) तत्तत् अप्रस्तुत वृत्तान्त की प्रतीति हो
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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