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________________ निदर्शनालङ्कारः 'अङत्रिदण्डो हरेरूर्ध्वमुत्क्षिप्तो बलिनिग्रहे । विधिविष्टर पद्मस्य नालदण्डो मुदेऽस्तु वः ।।' इति विशिष्टत्वरूप कोदाहरणेऽपि न बिम्बप्रतिबिम्बभावापन्न वस्तुविशिष्टरूपता; विधिविष्टर कमलदण्ड विशिष्टत्वरूपसाधारणधर्मवत्ता संपादनार्थमेव तद्विशेषणोपादानात् । 'यद्दातुः सौम्यता' इत्यादिनिदर्शनोदाहरणेषु दातृपूर्णेन्द्वादीनामानन्दकरत्वादिनेवात्र विशेषणयोबिम्बप्रतिबिम्बभावात् । यत्र तु विषयविषयिविशेषणानां परस्पस्सादृश्येन विम्बप्रतिबिम्बभावोऽस्ति | 'ज्योत्स्नाभस्मच्छुरणधवला बिभ्रती तारकास्थी - न्यन्तर्धानव्यसनरसिका रात्रिकापालिकीयम् । ऐक्यारोप पाया जाता है । ( यहां तक कि जहां विषय मुखादि ) ( चन्द्रादि) दोनों के तत्तत् विशिष्ट धर्मों का प्रयोग रूपक के प्रकरण में वहां भी उनमें बिंबप्रतिबिंबभाव नहीं पाया जाता, इसे स्पष्ट करने के का एक उदाहरण ले लें । ) ७५ तथा विषयी देखा जाता है, लिए हम रूपक दैत्यराज बलि के बन्धन के समय ऊपर उठाया हुआ विष्णु का चरण, जो ब्रह्मा आसनरूपी पद्म का नालदण्ड है, आप लोगों को प्रसन्न करे ।" विष्णु का चरण ( अंध्रिदण्डः ) विषय है, इस पर 'नालदण्डः' इस विषयी का आरोप किया गया है, यद्यपि यहां विशिष्ट ( धर्मविशिष्ट ) विषयविषयी का उपादान हुआ है (अर्थात् ऊर्ध्वोत्क्षिप्तत्वविशिष्टांघ्रिदण्ड ( विषय ) तथा विधिविष्टर पद्म सम्बन्धित्वविशिष्टनालदण्ड (विषयी) का उपादान हुआ है ) तथापि बिंबप्रतिबिंबभाव वाले तत्तत् धर्म से विशिष्ट होने के कारण होने वाला ऐक्यारोप यहां नहीं पाया जाता, क्योंकि ब्रह्मा के आसनरूप कमलदण्ड से विशिष्टभाव के साधारण धर्म को बताने के लिए ही इन दोनों विशेषणों का उपादान हुआ है । जिस तरह 'दातुः सौम्यता' आदि निदर्शना के उदाहरणों में दाता (प्रस्तुत ) पूर्णेन्दु ( अप्रस्तुत ) आदि के 'सौम्यता' तथा 'अकलंकता' रूप विशेषणों में 'आनन्दकरख' पाया जाता है, अतः इनमें बिंबप्रतिबिंबभाव घटित हो जाता है, ठीक इसी तरह इस रूपक के उदाहरण में नहीं है । ( भाव यह है, यहां तत् उपमेयोपमान (विषयविषयी) के साथ जिन विशेषणों ( धर्मों) का प्रयोग हुआ है, वह केवल समान धर्म का संकेत करने के लिए हुआ है, 'ऊर्ध्वोत्क्षिप्त' तथा 'विधिविष्टर पद्म' में कोई बिंबप्रतिबिंबभाव नहीं पाया जाता और जब तक बिंबप्रतिबिंबभाव नहीं होगा, तब तक निदर्शना न होगी । ) ( पूर्वपक्षी को पुनः यह शंका हो सकती है कि उक्त रूपकोदाहरण से निदर्शना वाले प्रकरण में भेद हो सकता है, किन्तु सावयवरूपक से क्या भेद है ? इसी का समाधान करने के लिए कहते हैं । ) हम ऐसा उदाहरण ले लें, जहाँ सावयवरूपक के प्रकरण में विषय तथा विषयी के तत्तत् विशेषण (धर्मो ) में परस्पर सादृश्य के कारण बिंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है, जैसे निम्न उदाहरण में 'चाँदनी की भस्म लपेटे उजली बनी, तारों की अस्थियाँ धारण करती, अपने अन्तर्धान
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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