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________________ कुवलयानन्दः इत्यादिषु वाक्यभेदाभावेऽपि वाक्यार्थवृत्तिरेव निदर्शना; विशिष्टयोरैक्यारोपसद्भावात् । 'वाक्यार्थयोः सदृशयो:' इति लक्षणवाक्ये वाक्यार्थशब्देन बिम्बप्रतिबिम्बभावापन्नवस्तुविशिष्टस्वरूपयोः प्रस्तुता प्रस्तुतधर्मयविवक्षितत्वादिति । एवं च ७४ 'राजसेवा मनुष्याणामसिधारावलेहनम् । पचानन परिष्वङ्गो व्यालीबदनचुम्बनम् ॥' इत्यत्र प्रस्तुता प्रस्तुत वृत्तान्तयोरेकैकपदोपात्तत्वेऽपि वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शनाया न क्षतिः । तयोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावापन्नवस्तुविशिष्टव्यवहाररूपत्वात् । अत एव निदर्शनाया रूपकाद्भेदः । रूपके ह्यविशिष्टयोरेव मुखचन्द्रादिकयोरैक्यारोपः । (इस उदाहरण में भी वाक्य एक ही है, उपमेयवाक्य तथा उपमानवाक्य अलग अलग नहीं पाये जाते, किन्तु एक ही वाक्य में उपमेय के विशिष्ट धर्म ( गुणस्तवन ) तथा उपमान के विशिष्ट धर्म ( हाथों के द्वारा समुद्रतितीर्षा ) में ऐक्यारोप पाया जाता है, अतः यह भी वाक्यार्थवृत्ति निदर्शना है । ) इन उदाहरणों में उपमेय तथा उपमान एवं उनके विशिष्ट धर्मों का उपादान एक वाक्य में पाया जाता है, फिर भी यहाँ वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शना ही है, क्योंकि उपमानोपमेय के तत्तत् विशिष्ट धर्मों में ऐक्यारोप पाया जाता है । ( इस पर पूर्वपक्षी यह शंका कर सकता है कि ऐसा मानने पर वाक्यार्थनिदर्शना का युष्मदुदाहृत लक्षण 'वाक्यार्थयोः सदृशयोः' कैसे ठीक बैठेगा, इसी शंका का समाधान करने के लिए कहते हैं। ) वाक्यार्थनिदर्शना के लक्षण 'वाक्यार्थयोः सदृशयोः' में 'वाक्यार्थ' शब्द के द्वारा केवल यही विवक्षित नहीं है कि उपमानोपमेय दो वाक्य में ही हों, अपितु यह विवक्षित है कि प्रस्तुत (उपमेय ) तथा अप्रस्तुत ( उपमान ) के तत्तत् धर्म बिंबप्रतिबिंबभावरूप विशिष्ट स्वरूप वाले हों - भाव यह है 'वाक्यार्थयोः सदृशयोः' के द्वारा वाक्यद्वयभाव विवक्षित न होकर बिंबप्रतिबिंब भावरूप से ऐक्यारोप प्राप्त करते प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के धर्मों का उपादान विवक्षित है । ( इसीलिए यदि कहीं प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के धर्मों का अलगअलग उपादान न कर समस्त प्रस्तुत वृत्तान्त एक ही पद में, तथा समस्त अप्रस्तुत वृत्तान्त का भी केवल एक ही पद में वर्णन किया गया हो, वहाँ भी वाक्यार्थवृत्ति निदर्शना ही होगी । ) इस प्रकार 'मनुष्यों के लिए राजसेवा तलवार की धार का चाटना, शेर का आलिंगन तथा सर्पिणी के मुख का चुम्बन है ।' ( यहाँ 'राजसेवा' प्रस्तुत वृत्तान्त है, जो एक ही पद में वर्णित है, इसी तरह 'असि धारावलेहन' आदि अप्रस्तुत वृत्तान्त हैं, वे भी एक ही पद में वर्णित हैं, किंतु यहाँ उपमेय धर्म पर तत्तत् उपमानधर्म का 'ऐक्यारोप स्पष्ट है, अतः वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शना हो जाती है । इसमें मालारूपा वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शना है। ) इस उदाहरण में प्रस्तुत वृत्तान्त तथा अप्रस्तुत वृत्तान्त का एक-एक ही पद में उपादान किया है, फिर भी यहाँ वाक्यार्थनिदर्शना तुण्ण नहीं होती, क्योंकि प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में बिंबप्रतिबिंबभाव को प्राप्त होने के कारण उनके विशिष्ट धर्मो का ऐक्यारोप पाया जाता है। यही वह भेदक तत्व है, जिसके कारण निदर्शना रूपक से भिन्न सिद्ध होती है । रूपक में अविशिष्ट ( धर्मादि से रहित ) मुखचन्द्रादि ( विषयविषयी ) का
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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