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________________ ७६ कुवलयानन्दः द्वीपादद्वीपं भ्रमति दधती चन्द्रमुद्राकपाले न्यस्तं सिद्धाञ्जनपरिमलं लाञ्छनस्य च्छलेन ॥' इति सावयवरूपकोदाहरणे । तत्रापि विषयविषयिणोस्तद्विशेषणानां च प्रत्येकमेवैक्यारोपः, न तु ज्योत्स्नादिविशिष्टरात्रिरूपविषयस्य भस्मादिविशिष्टकापालिकीरूपविषयिणश्च विशिष्टरूपेणैक्यारोपोऽस्तीति । तस्मात् 'राजसेवा मनुष्याणाम्' इत्यादावपि वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शनैव युक्ता । मतान्तरे त्विह पदार्थवृत्त्यैव निदर्शनया भाव्यमिति ॥ ५४ ॥ अपरां बोधनं प्राहुः क्रिययाऽसत्सदर्थयोः । नश्येद्राजविरोधीति क्षीणं चन्द्रोदये तमः ॥ ५५ ॥ के व्यसन में अनुरक्त यह रात्रिरूपिणी योगिनी अपने चन्द्रमारूपी मुद्राकपाल (खप्पर ) में कलंक के बहाने सिद्धांजन का चूर्ण रखकर प्रत्येक द्वीप में विचरण कर रही है । (यहाँ सावयव रूपक है, क्योंकि रात्रि ( विषय ) पर कापालिकी ( विषयी ) का तथा उसके तत्तत् अवयव ज्योत्स्नादि ( विषय ) पर कापालिकी के तत्तत् अवयव भस्मादि ( विषयी ) का भारोप किया गया है । यहाँ ज्योत्स्नादि तथा भस्मादि में परस्पर सादृश्य होने के कारण बिंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है; अतः तत्तत् धर्मों के बिंबप्रतिबिंबभाव होने पर इससे निदर्शना का क्या भेद है, यह शंकाकार का अभिप्राय है । ) यद्यपि यहाँ तत्तत् विषयविषयिविशेषण ( ज्योत्स्नाभस्मादि ) के परस्पर सादृश्य के कारण उनका बिंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है, तथापि यहाँ भी विषय ( रात्रि ) तथा विषयी ( कापालिकी) एवं उनके तत्तत् विशेषणों ( ज्योत्स्नाभस्मादि ) का एक-एक पर ऐक्यारोप पाया जाता है । यह आरोप व्यस्तरूप में होता है, विशिष्टरूप में नहीं कि ज्योत्स्नादिविशिष्ट रात्रि रूप विषय पर भस्मादिविशिष्ट कापालिकीरूप विषयी का ऐक्यारोप होता हो । ( भाव यह है यहाँ, एक-एक विषय रात्रि तथा तदवयव ज्योत्स्नादि पर स्वतन्त्रतः एक-एक विषयी कापालिकी तथा तदवयव भस्मादि का आरोप पाया जाता है, तदनन्तर संपूर्ण सावयव रूपक की निष्पत्ति होती है, ऐसा नहीं होता कि पहले ज्योत्स्नादि विशेषणों का अन्वय रात्रि के साथ घटित हो जाता हो, इसी तरह भस्मादि का अन्वय कापालिकी के साथ, तदुपरान्त तद्विशिष्ट रात्रि पर तद्विशिष्ट कापालिकी का ऐक्यारोप होता हो । यदि दूसरा विकल्प होता तो निदर्शना में और सावयवरूपक के उदाहरणों में भेद न मानने का प्रसंग उपस्थित हो सकता है ।) अतः स्पष्ट है कि 'राजसेवा मनुष्याणां' इत्यादि पद्य में भी वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शना मानना ही ठीक है । केवल वाक्यद्वय में ही तथा पृथक् रूप से प्रस्तुताप्रस्तुत तथा उनके तत्तत् धर्म के पृथक-पृथक उपादान में ही वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शना मानने वाले आलंकारिकों के मत में ( मतान्तरे तु ) इस पद्य ( 'राजसेवा' इत्यादि) में पदार्थवृत्ति निदर्शना ही होगी । ( निदर्शना का द्वितीय प्रकार ) ५५. जहाँ किसी विशेष क्रिया से युक्त पदार्थ की क्रिया से असत् या सत् अर्थ का बोधन कराया जाय, वहाँ भी निदर्शना होती । जैसे, 'राजा ( चन्द्रमा) का विरोधी नष्ट हो जाता है' इसलिए चन्द्रोदय होने पर अन्धकार नष्ट हो गया ।' ( यह असत् अर्थरूपा
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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